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हिंदी-साहित्य का इतिहास

के पश्चिमी प्रांत के निवासियों को सहने पड़ते थे जहाँ हिंदुओं के बड़े-बड़े राज्य प्रतिष्ठित थे । गुप्त साम्राज्य के ध्वस्त होने पर हर्षवर्धन ( मृत्यु-संवत् ७०४ ) के उपरांत भारत का पश्चिमी भाग ही भारतीय सभ्यता और बल-वैभव का केंद्र हो रहा था । कन्नौज, दिल्ली, अजमेर, अन्हलवाड़ा आदि बड़ी-बड़ी राजधानियाँ उधर ही प्रतिष्ठित थी । उधर की भाषा ही शिष्ट भाषा मानी जाती थी और कवि-चारण आदि उसी भाषा मे रचना करते थे । प्रारंभिक काल का जो साहित्य हमें उपलब्ध हैं उसका आविर्भाव उसी भूभाग में हुआ । अतः यह स्वाभाविक है कि उसी भूभाग की जनता की चित्तवृत्ति की छाप उस साहित्य पर हों । हर्षवर्धन के उपरांत ही साम्राज्य-भावना देश से अंतर्हित हो गई थी और खंड खंड होकर जो गहरवार, चौहान, चंदेल और परिहार आदि राजपूत-राज्य पश्चिम की ओर प्रतिष्ठित थे, वे अपने प्रभाव की वृद्धि के लिये परस्पर लड़ा करते थे । लडाई किसी आवश्यकता-वश नहीं होती थी; कभी कभी तो शौर्य-प्रदर्शन मात्र के लिये यों ही मोल ली जाती थी । बीच बीच में मुसलमानों के भी हमले होते रहते थे। सारांश यह कि जिस समय से हमारे हिंदी-साहित्य का अभ्युदय होता है, वह लड़ाई भिड़ाई का समय था, वीरता के गौरव का समय था और सब बाते पीछे पड़ गई थी ।

महमूद गजनवी ( मृत्यु-संवत् १०८७ ) के लौटने के पीछे गजनवी सुलतानों का एक हाकिम लाहौर में रहा करता था और वहाँ से लूटमार के लिये देश के भिन्न भिन्न भागों पर, विशेषतः राजपूताने पर,चढ़ाइयां हुआ करती थी । इन चढ़ाइयों का वर्णन फारसी तवारीखों में नहीं मिलता, पर कही कहीं संस्कृत ऐतिहासिक काव्यों में मिलता हैं। सॉभर ( अजमेर) का चौहान राजा दुर्लभराज द्वितीय मुसलमानों के साथ युद्ध करने में मारा गया था। अजमेर बसानेवाले अजयदेव ने मुसलमानो को परास्त किया था ! अजयदेव के पुत्र अर्णोराज ( आना ) के समय में मुसलमानों की सेना फिर पुष्कर की घाटी लांघकर उस स्थान पर जा पहुंची जहाँ अब आनासागर है! अणराज ने उस सेना का संहार कर बड़ी भारी विजय प्राप्त की। वहाँ म्लेच्छ मुसलमानो का रक्त गिरा था, इससे उस स्थान को अपवित्र मानकर वहाँ अणो्राज ने एक बड़ा तालाब बनवा दिया जो ‘आना सागर” कहलाया है।