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गद्य-साहित्य का प्रसार

भाषा की पूरी नकल करता हुआ सामने रख सकता है। पर सब अवस्थाओं में कोई बात अवश्य चाहिए।

इस अर्थगत विशेषता के आधार पर ही भाषा और अभिव्यंजन प्रणाली की विशेषता––शैली की विशेषता––खड़ी हो सकती है। जहाँ नाना अर्थ संबंधों का वैचित्र्य नहीं, जहाँ गतिशील अर्थ की परंपरा नहीं, वहाँ एक ही स्थान पर खड़ी-खडी तरह-तरह की मुद्रा और उछल कूद दिखाती हुई भाषा केवल तमाशा करता हुई जान पड़ेगी।

भारतेंदु के समय से ही निबंधों की परपरा हमारी भाषा में चल पड़ी थी जो उनके सहयोगी लेखकों में कुछ दिनो तक जारी रहीं। पर, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, स्थायी विषयों पर निबंध लिखने की परंपरा बहुत जल्दी बंद हो गई। उसके साथ ही वर्णनात्मक निबंध-पद्धति पर सामयिक घटनाओं, देश और समाज जीवनचर्या, ऋतुचर्या आदि का चित्रण भी बहुत कम हो गया। इस द्वितीय उत्थान के भीतर उत्तरोत्तर उच्च कोटि के स्थायी गद्य साहित्य का निर्माण जैसा होना चाहिए था, न हुआ। अधिकांश लेखक ऐसे ही कामों में लगे जिनमे बुद्धि को श्रम कम पड़े। फल यह हुआ कि विश्वविद्यालयों में हिंदी की उँची शिक्षा का विधान हो जाने पर उच्च कोटि के गद्य की पुस्तकों की कमी का अनुभव चारो ओर हुआ।

भारतेंदु के सहयोगी लेखक स्थायी विषयो के साथ-साथ समाज की जीवनचर्या, ऋतुचर्या, पर्व-त्योहार आदि पर भी साहित्यिक निबंध लिखते आ रहे थे। उनके लेखों में देश की परंपरागत भावनाओं और उमगों का प्रतिबिंब रहा करता था। होली, विजयादशमी, दीपावली, रामलीला इत्यादि पर उनके लिखे प्रबंधों में जनता के जीवन की रंग पूरा पूरा रहता था। इसके लिये वे वर्णनात्मक और भावात्मक दोनों विधानो का बड़ा सुंदर मेल करते थे। यह सामाजिक सजीवता भी द्वितीय उत्थान के लेखकों में वैसी न रही।

इस उत्थानकाल के आरंभ में ही निबंध का रास्ता दिखानेवाले दो अनुवादग्रंथ प्रकाशित हुए––"बेकन-विचार-रत्नावली" (अँगरेजी के बहुत पुराने क्या पहले निबंध-लेखक लार्ड बेकन के कुछ निबधों का अनुवाद) और "निबंध मालादर्श" (चिपलूणकर के मराठी निबंध का अनुवाद)। पहली पुस्तक