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गद्य-साहित्य का प्रसार

"कविता यदि यथार्थ में कविता है तो संभव नहीं कि इसे सुनकर कुछ असर न हो। कविता से दुनिया में आज तक बड़े बड़े काम हुए हैं। x x x कविता में कुछ न कुछ झूठ का अंश जरूर रहता है। असभ्य अथवा अर्द्धसभ्य लोगो को यह अंश कम खटकता है, शिक्षित और सभ्य लोगो को बहुत। x x x संसार में जो बात जैसी देख पड़े कवि को उसे वैसी ही वर्णन करना चाहिए।"

कहने की आवश्यकता नहीं कि द्विवेदीजी के लेख या निबंध विचारात्मक श्रेणी में आएँगे। पर विचारों की वह गूढ-गुफित परंपरा उनमें नहीं मिलती जिससे पाठक की बुद्धि उत्तेजित होकर किसी नई विचारपद्धति पर दौड़ पड़े। शुद्ध विचारात्मक निबंधो का चरम उत्कर्ष वहीं कहा जा सकता है जहाँ एक एक पैराग्राफ में विचार दबा दबाकर कसे गए हो और एक एक वाक्य किसी संबंध विचार-खंड को लिए हो। द्विवेदीजी के लेखो को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता हैं कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिये लिख रहा है। एक एक सीधी बात कुछ हेर फेर––कहीं कहीं केवल शब्द के ही––के साथ पाँच छः तरह से पाँच छः वाक्यों में कही हुई मिलती है। उनकी यही प्रवृत्ति उनकी गद्य-शैली निर्धारित करती हैं। उनके लेखो में छोटे-छोटे वाक्यो का प्रयोग अधिक मिलता है। नपे-तुले वाक्य को कई बार शब्दो के 'कुछ' हेर-फेर के साथ कहने का ढंग वही है जो वाद या संवाद में बहुत शान होकर समझाने बुझाने के काम में लाया जाता है। उनकी यह व्यास-शैली विपक्षी को कायल करने के प्रयत्न में बड़े काम की है।

इस बात के उनके दो लेख "क्या हिदी नाम की कोई भाषा ही नहीं" (सरस्वती सन् १९१३) और "आर्यसमाज का कोंप" (सरस्वती १९१४) अच्छे उदाहरण है। उनके कुछ अंश नीचे दिए जाते हैं––

(१) आप कहते हैं कि प्राचीन भाषा मर चुकी, और उसे मरे तीन सौ वर्ष हुए। इस पर प्रार्थना है कि न वह कभी मरी और न उसके मरने के कोई लक्षण ही दिखाई देते हैं। यदि आप कमी अगिरा, मथुरा, फर्रुखाबाद, मैनपुरी और इटावे तशरीफ ले जाँय तो कृपा करके वहाँ के एक आध अपर प्राइमरी या मिडिल स्कूल का मुआइना न