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गद्य-साहित्य का प्रसार

कि राज्य अँगरेजी है, अन्यथा हमारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाता। भाई सिंह दुःख मत करो। आर्यसमाज की धर्मोन्नति होती हो तो––

"कर कुठार, आगे यह सीसा"

पं॰ माधवप्रसाद मिश्र का जन्म पंजाब के हिसार जिले में भिवानी के पास कूँगड़ नामक ग्राम में भाद्र शुक्ल १३ संवत् १९२८ को और परलोकवास उसी ग्राम में प्लेग से चैत्र कृष्ण ४ संवत् १९६४ को हुआ। ये बड़े तेजस्वी सनातनधर्म के कट्टर समर्थक, भारतीय संस्कृति की रक्षा के सतत अभिलाषी विद्वान् थे। इनकी लेखनी में बड़ी शक्ति थी। जो कुछ ये लिखते थे बड़े जोश के साथ लिखते थे, इससे इनकी शैली बहुत प्रगल्भ होती थी। गौड़ होने के कारण मारवाड़ियों से इनका विशेष लगाव था और उनके समाज का सुधार ये हृदय से चाहते थे, इसी से "वैश्योपकारक" पत्र का संपादन-भार कुछ दिन इन्होंने अपने ऊपर लिखा था। जिस वर्ष "सरस्वती" निकली (सं॰ १९५७) उसी वर्ष प्रसिद्ध उपन्यासकार बा॰ देवकीनंदन खत्री की सहायता से काशी से इन्होंने "सुदर्शन" नामक पत्र निकलवाया जो सवा दो वर्ष चलकर बंद हो गया। इसके संपादनकाल में इन्होंने साहित्य-संबंधी बहुत से लेख, समीक्षाएँ और निबंध लिखे। जोश में आने से ये बड़े शक्तिशाली लेख लिखते थे। 'समालोचक' संपादक पं॰ चंद्रधर शर्मा गुलेरीजी ने इसी से एक बार लिखा था कि––

"मिश्रजी बिना किसी अभिनिवेश के लिख नहीं सकते। यदि हमें उनसे लेख पाने है तो सदा एक न एक टटा उनसे छेड़ ही रक्खा करें।"

इसमें संदेह नहीं कि जहाँ किसी ने कोई ऐसी बात लिखी जो इन्हे सनातनधर्म के संस्कारों के विरुद्ध अथवा प्राचीन ग्रंथकारो और कवियों के गौरव को कम करनेवाली लगी कि इनकी लेखनी चल पड़ती थी। पाश्चात्य संस्कृताभ्यासी विद्वान् जो कुछ कच्चा पक्का मत यहाँ के वेद, पुराण, साहित्य आदि के संबंध में प्रकट किया करते थे इन्हे खल जाते थे और उनका विरोध ये डटकर करते थे। उस विरोध में तर्क, आवेश और भावुकता सब का एक अद्भुत मिश्रण रहता था। 'वेबर का भ्रम' इसी झोक में लिखा गया था। पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी