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हिंदी-साहित्य का इतिहास

ने अपनी 'नैषध-चरित-चर्चा' में नैषध के कई एक बड़ी दूर की सूझवाले अत्युक्तिपूर्ण पद्यों को अस्वाभाविक और सुरुचि-विरुद्ध कह दिया। फिर क्या था, ये एकबारगी फिर पड़े और उनकी बातों का अपने ढंग पर उत्तर देते हुए लगे हाथों पं॰ श्रीधर पाठक के 'गुनवंत हेमंत' नाम की एक कविता की जिसकी द्विवेदी जी ने बड़ी प्रशंसा की थी, नीरसता और इतिवृत्तात्मकता भी दिखाई। यह विवाद कुछ दिन चला था।

मिश्रजी का स्वदेश-प्रेम भी बहुत गंभीर था। ये संस्कृत के और पंडितो के समान देशदशा के अनुभव से दूर रहनेवाले व्यक्ति न थे। राजनीतिक आंदोलनों के साथ इनका हृदय बराबर रहता था। जब देशपूज्य मालवीयजी ने छात्रों को राजनीतिक आदोलनों से दूर रहने की सलाह दी थी तब इन्होंने एक अत्यंत क्षोभ पूर्ण "खुली चिट्ठी" उनके नाम छापी थी। देशदशा की इस तीव्र अनुभूति के कारण इन्हे श्रीधर पाठक की कविताओं में एक बात बहुत खटकी। पाठकजी ने जहाँ ऋतुशोभा या देशछटा का वर्णन किया है। वहाँ केवल सुख, आनंद और प्रफुल्लता के पक्ष पर ही उनकी दृष्टि पड़ी है, देश के अनेक दीन-दुखियों के पेट की ज्वाला और कंकालवत् शरीर पर नहीं।

मिश्रजी ने स्वामी विशुद्धानदजी के बड़े जीवन-चरित्र के अतिरिक्त और भी बीसों व्यक्तियों के छोटे छोटे जीवन-चरित्र लिखे जिनमें कुछ संस्कृत के पुराने ढाँचे के विद्वान् तथा सनातन धर्म के सहायक सेठ साहूकार आदि हैं। 'सुदर्शन' में इनके लेख प्रायः सब विषयों पर निकलते थे, जैसे––पर्वत्यौहार, उत्सव, तीर्थस्थान, यात्रा, राजनीति इत्यादि। पर्वत्योहारो तथा भिन्न-भिन्न ऋतुओं में पड़नेवाले उत्सवों पर निबंध लिखने की जो परंपरा भारतेंदु के सहयोगियों ने चलाई थीं वह इस द्वितीय उत्थान में आकर इन्हीं पर समाप्त हो गई। हाँ, संवाद-पत्रों के होली, दीवाली के अंकों में उसका आभास बना रहा। लोकसामान्य स्थायी विषयों पर मिश्रजी के केवल दो लेख मिलते है––'धृति' और 'क्षमा'।

द्वितीय उत्थानकाल में इस प्रभावशाली लेखक के उदय की उज्ज्वल आभा हिंदी साहित्य-गगन में कुछ समय के लिये दिखाई पड़ी, पर खेद है कि अकाल हीं विलीन हो गई। पं॰ माधवप्रसाद मिश्र के मार्मिक और ओजस्वी