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वीरगाथा

आना के पुत्र बीसलदेव ( विग्रहराज चतुर्थ ) के समय में वर्तमान किशनगढ़ राज्य तक मुसलमानों की सेना चढ़ आई जिसे परास्त कर बीसलदेव आर्यावर्त से मुसलमानों को निकालने के लिये उत्तर की ओर बढ़ा है। उसने दिल्ली और झॉसी के प्रदेश अपने राज्य में मिलाए और अार्यावर्त के एक बड़े भूभाग से मुसलमानों को निकाल दिया । इस बात का उल्लेख दिल्ली के अशोक-लेखवाले शिवालिक स्तभ पर खुदे हुए बीसलदेव के वि० सं० १२२० के लेख से पाया जाता है। शहाबुद्दीन गोरी की पृथ्वीराज पर पहली चढ़ाई (सं० १२४७ ) के पहले भी गोरियों की सेना ने नाड़ौल पर धावा किया था, पर उसे हारकर लौटना पड़ा। इसी प्रकार महाराज पृथ्वीराज के मारे जाने और दिल्ली तथा अजमेर पर मुसलमानों को अधिकार हो जाने के पीछे भी बहुत दिनों तक राजपूताने आदि में कई स्वतंत्र हिंदू राजा थे जो बराबर मुसलमानों से लड़ते रहे। इनमे सबसे प्रसिद्ध रणथंभौर के महाराज हम्मीरदेव हुए है जो महाराज पृथ्वीराज चौहान की वंश-परंपरा में थे । वे मुसलमानो से निरंतर लड़ते रहे और उन्होंने उन्हें कई बार हराया था। सारांश यह कि पठानो के शासन-काल तक हिंदू बराबर स्वतंत्रता के लिये लड़ते रहे।

राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपए पाने वाले कवियो का समय बीत चुका था। राजदरबारों मे शास्त्रार्थों की वह धूम नहीं रह गई थी । पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रु-कन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।

इस दशा में काव्य या साहित्य के और भिन्न भिन्न अंगों की पूर्ति और समृद्धिका सामुदायिक प्रयत्न कठिन था । उस समय तो केवल वीरगाथाओं की उन्नति संभव थी । इस वीरगाथा को हम दोनों रूपो में पाते हैं- मुक्तक के रूप में भी और प्रबंध के रूप में भी । फुटकल रचनाओं का विचार छोड़कर यहाँ वीरगाथात्मक प्रबंध काव्यों का ही उल्लेख किया जाता है । जैसे, योरप में वीरगाथाओं का प्रसंग युद्ध और प्रेम रहा, वैसे ही यहाँ भी था। किसी