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गद्य-साहित्य का प्रसार

दरिद्र के घर शरण ली है और उनके सिंहासन पर अर्थ जा बैठा है। x x x अर्थ ही इस युग का परब्रह्म है। इस ब्रह्मवस्तु के बिना विश्व-संसार का अस्तित्व नहीं रह सकता। यही चक्राकार चैतन्यरूप कैशवाक्स में प्रवेश करके संसार को चलाया करते हैं। x x x साधकों के हित के लिये अर्थनीति-शास्त्र में इसकी उपासना की विधि लिखी है। x x x x बच्चों की पहली पोथी में लिखा है––"बिना पूछे दूसरे का माल लेना चोरी कहलाता है।" लेकिन कहकर जोर से दूसरे का धन हड़प कर लेने से क्या कहलाता है, यह उसमें नहीं लिखा है। मेरी राय में यही कर्मयोग का मार्ग है।"

कहने की आवश्यकता नहीं कि उद्धृत अंश में बंगभाषा के प्रसिद्ध ग्रंथकार बंकिमचंद्र की शैली का पूरा आभास है।


बाबू बालमुकुंद गुप्त का जन्म पंजाब के रोहतक जिले के गुरयानी गाँव में सं॰ १९२२ में और मृत्यु सं॰ १९६४ में हुई। ये अपने समय के सबसे अनुभवी और कुशल संपादक थे। पहले इन्होंने दो उर्दू पत्रों का संपादन किया था, पर शीघ्र ही कलकत्ते के प्रसिद्ध संवादपत्र 'बंगवासी' के संपादक हो गए। बंगवासी को छोड़ते ही ये 'भारत मित्र' के प्रधान संपादक बनाए गए। ये बहुत ही चलते पुरजे और विनोदशील लेखक थे अतः कभी कभी छेड़छाड़ भी कर बैठते थे। पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी ने जब 'सरस्वती' (भाग ६ संख्या ११) के अपने प्रसिद्ध 'भाषा और व्याकरण' शीर्षक लेख में 'अनस्थिरता' शब्द का प्रयोग कर दिया तब इन्हें छेड़छाड़ का मौका मिल गया और इन्होंने 'आत्माराम' के नाम से द्विवेदीजी के कुछ प्रयोगों की आलोचना करते हुए एक लेखमाला निकाली जिसमें चुहलबाजी का पुट पूरा था। द्विवेदीजी ऐसे गंभीर प्रकृति के व्यक्ति को भी युक्तिपूर्ण उत्तर के अतिरक्त इनकी विनोदपूर्ण विगर्हणा के लिये "सरगौ नरक ठेकाना नाहिं" शीर्षक देकर बहुत फबता हुआ आल्हा 'कल्लू अल्हइत' के नाम से लिखना पड़ा।

पत्र-संपादन काल में इन्होंने कई विषयों पर अच्छे निबंध भी लिखे जिनका एक संग्रह गुप्त-निबंधावली के नाम से छप चुका है। इनके 'रत्नावली नाटिका' के सुंदर, अनुवाद का उल्लेख हो चुका है।

गुप्त जी ने सामयिक और राजनीतिक परिस्थिति को लेकर कई मनोरंजक