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हिंदी-साहित्य का इतिहास

"कछुआ धरम" और "मारेसि मोहिं कुठाउँ" नामक लेखों से उद्धरण दिए जाते हैं।

(१) मनुस्मृति में कहा गया है कि जहाँ गुरु की निंदा या असत् कथा हो रही हो वहाँ पर भले आदमी को चाहिए कि कान बंद कर ले या और कहीं उठकर चला जाय। मनु महाराज ने न सुनने जोग गुरु की कलंक कथा सुनने के पाप से बचने के दो ही उपाय बताए हैं। या तो कान ढककर बैठ जाओ या दुम दबाकर चल दो। तीसरा उपाय जो और देशों के सौ में नब्बे आदमियों को ऐसे अवसर पर सूझेगा, वह मनु ने नहीं बताया कि जूता लेकर या मुक्का तान कर सामने खड़े हो जाओ और निंदा करने वाले का जबड़ा तोड़ दो या मुँह पिचका दो कि फिर ऐसी हरकत न करे।

पुराने से पुराने आर्य्यों की अपने भाई असुरों से अनबन हुई। असुर असुरिया में रहना चाहते थे; आर्य्य सप्त-सिंधुओं को आर्य्यावर्त बनाना चाहते थे। आगे चल दिए। पीछे वे दबाते आए। विष्णु ने अग्नि, यज्ञपात्र और अरणी रखने के लिये तीन गाड़ियाँ बनाईं। उसकी पत्नी ने उनके पहियों की चूल को घी से आँच दिया। ऊखल, मूसल और सोम कूटने के पत्थरों तक को साथ लिए हुए यह 'कारवाँ' में मूँजवत् हिंदूकुश के एक मित्र दर्रे खैबर में होकर सिंधु की एक घाटी में उतरा। पीछे से श्वान, भ्राज, अभारि, भारि, हस्त, सुहस्त, कृशन, शंढ, मर्क मारते चले आते थे। वज्र की मार से पिछली गाड़ी-भी आधी टूट गई, पर तीन लंबे डग मरने वाले विष्णु ने पीछे फिर कर नहीं देखा और न जमकर मैदान लिया। पितृभूमि अपने भ्रातृज्यों के पास छोड़ आए और यहाँ 'भ्रातृव्यस्य वधाय' (सजातानां मध्यमेष्ट्याय) देवताओं को आहुति देने लगे। जहाँ जहाँ रास्ते में टिके थे वहँ वहाँ यूप खड़े हो गए। यहाँ की सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला, भूमि में ये बुलबुले चहकने लगीं।

पर ईरान के अंगूरों और गुलों का, मूँजवत् पहाड़ की सोमलता का, चसका पड़ा हुआ था। लेने जाते तो वे पुरानै गंधर्व मारने दौड़ते। हाँ, उनमें से कोई कोई उस समय का चिलकौआ नकद नारायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाते थे। उस समय का सिक्का गौएँ थी। जैसे आजकल लखपती, करोड़पती कहलाते हैं, वैसे तब "शतगु", "सहस्रगु" कहलाते थे। ये दमड़ीमल के पोते करोड़ीचंद अपने "नवग्वाः", "दशग्जाः" पितरों से शरमाते न थे, आदर से उन्हें याद करते थे। आजकल के मेवा बेचनेवाले पेशावरियों की तरह कोई कोई 'सरहदी' यहाँ पर भी सोम बेचने चले आते