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गद्य-साहित्य का प्रसार

थे। कोई आर्य्य सीमाप्रांत पर जाकर भी ले आया करते थे! मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी, जैसी कि तरकारियों का भाव करने में कुँजडिनो से हुआ करती है। ये कहते कि गौ की एक कला में सोम बेच दो। वे कहता, वाह! सोम राजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है। इधर ये गौ के गुण बखानते। जैसे बुड्ढे चौबेजी ने अपने कंधे पर चढ़ी बालवधू के लिये कहा था कि 'याही में बेटा, और याही में बेटी' वैसे ये भी कहते कि इस गौ से दूध होता है, मक्खन होता है, दही होता है, यह होता है, वह होता है। पर काबुली काहे को मानता? उसके पास सोम को "मनोपली" थी और इनका बिना लिए सरता नही। अंत में गौ को एक पाद, अर्ध होते होते दाम तै हो जाते।, भूरी आंखों वाली एक बरस की बछिया में सोम राजा खरीद लिए जाते। गाड़ी में रखकर शान से लाए जाते।

अच्छा, अब उसी पचनद में 'वाहीक' आकर बसे। अश्वघोष की फडकती उपमा के अनुसार धर्म भागा और दंड कमडंल लेकर ऋषि भी भागे। अब ब्रह्मावर्त, ब्रह्मर्षि देश और आर्यावर्त्त की महिमा हो गई; और वह पुराना देश––'न तत्र दिवस वसेत्'। बहुत वर्ष पीछे की बात है। समुद्र पार के देशों में और धर्म पक्के हो चले। वे लुटते मारते तो थे ही, बेधरम भी कर देते थे। बस समुद्र-यात्रा बंद! कहाँ तो राम के बनाए सेतु का दर्शन करके ब्रह्महत्या मिटती थी और कहाँ नाव में जानेवाले द्विज का प्रायश्चित्त करा कर भी संग्रह बंद! वही कछुआ धर्म! ढाल के अंदर बैठे रहो।

किसी बात का टोटा होने पर उसे पूरा करने की इच्छा होती है, दुःख होने पर उसे मिटाना चाहते हैं। यह स्वभाव है। संसार में विविध दुःख दिखाई पड़ने लगे। इन्हें मिटाने के लिये उपाय भी किए जाने लगे। 'दृष्ट' उपाय हुए। उनसे संतोष न हुआ तो सुनै सुनाए (आनुश्रविक) उपाय किए। उनसे भी मन न भरा। साख्यों ने काठ कडी गिन गिनकर उपाय निकाला, बुद्ध ने योग में पड़कर उपाय खोजा। किसी न किसी तरह कोई उपाय मिलता गया। कछुओं ने सोचा, चोर को क्या मारें, चोर की माँ को ही न मारें। न रहे बाँस न बजे बाँसुरी। लगीं प्रार्थनाएँ होने––

"मा देहि राम! जननी जठरे निवासम्"।

और यह उस देश में जहाँ सूर्य का उदय होना इतना मनोहर था कि ऋषियों