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हिंदी-साहित्य का इतिहास

का यह कहते कहते तालू सूखता था कि सौ बरस इसे हम उगता देखें, सौ बरस सुनें, सौ बरस बढ़ चढ़ कर बोलें, सी-बरस अदीन होकर रहें।

हयग्रोव या हिरण्याक्ष दोनों में से किसी एक दैत्य से देव बहुत तंग थे। सुरपुर में अफवाह पहुँची। बस, इंद्र ने किवाड़ बंद कर दिए, आगल डाल दी। मानों अमरावती ने आँखें बंद कर ली। यह कछुआ धरम का भाई शुतुरमुर्ग धरम है।

(२) हमारे यहाँ पूँजी शब्दों की है। जिससे हमें काम पटा, चाहे और बातों में हम ठगे गए, पर हमारी शब्दों की गाँठ नहीं करती गई। x x x x यही नहीं जो आया उससे हमने कुछ ले लिया।

पहले हमें काम असुरों से पढ़ा, असिरियावालों से। उनके यहाँ 'असुर' शब्द बड़ी शान का था। 'असुर' माने प्राणवाला, जबरदरत। हमारे इंद्र को भी यह उपाधि हुई, पीछे चाहे शब्द का अर्थ बुरा हो गया। x x x पारस के पारसियों से काम पड़ा तो वे अपने सूबेदारों की उपाधि 'क्षत्रप' 'क्षेत्रपावन' या 'महाक्षत्रप' हमारे यहाँ रख गए और गुस्ताल्प, विस्तास्प के वजन के कृशाश्र्व, स्यावाच, वृहदश्व आदि ऋषियों और राजाओं के नाम दे गए। यूनानी यवनों से काम पढ़ा तो वे, यवन की स्त्री यवनी तो नही पर यवन की लिपि 'यवनानी शब्द हमारे व्याकरण को भेंट कर गए। साथ ही मैष, वृष, मिथुन आदि भी यहाँ पहुँच गए। पुरानें ग्रंथकार तो शुद्ध यूनानी नाम आर, तार, जितुम आदि ही काम में लाते थें। वराहमिहिर की स्त्री खना चाहे यवनी रही हो, या न रही हो, उसने आदर से कहा है कि म्लेच्छ यवन भी ज्योति:शास्त्र जानने से ऋषियों की तरह पूजे जाते हैं। अब चाहे 'वैल्यूपैवल सिरटम' भी वेद में निकाला जाये, घर पुराने हिदू कृतघ्न और गुरुमार न थे। x x x यवन राजाओं की उपाधि 'सोटर' त्रातार का रूप लेकर हमारे राजाओं के यहाँ आ लगी। x x x शंका के हमले हुए तो 'शकपार्थिव' वैयाकरणों के हाथ लगा और शक संवत् या शाका सर्वसाधारण के। हूण वक्षु (Oxus) नदी के किनारे पर से यहाँ चढ़ आए तो कवियो को नारंगी की उपमा मिली कि ताजे मुटे हुए हूण की ठुड्डी की सो नारंगी।

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बकौल शेक्सपियर के जो मेरा धन छीनता है वह कूड़ा चुराता है, पर जो मेरा नाम चुराता है वह सितम ढाता है, आर्यसमाज ने मर्मस्थल पर वह मार की है कि