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हिंदी-साहित्य का इतिहास

लिये युरोप-निवासी इतने कमीने न बनते। यदि सारे पूरबी जगत् में इस महत्ता के लिये अपनी शक्ति से अधिक भी चंदा देकर सहायता की तो बिगड़ क्या गया? एक तरफ जहाँ युरोप के जीवन का एक अंश असभ्य प्रतीत होता है––कमीना और कायरता से भरा मालूम होता है––वहीं दूसरी और युरोप के जीवन का वह भाग जहाँ विद्या और दान का सूर्य चमक रहा है, इतना महान् है कि थोड़े ही समय में पहले अंश को मनुष्य अवश्य भूल जायँगे।

x x x आचरण की सभ्यता की देश ही निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्यात्मिक। x x x जब पैगंबर मुहम्मद ने ब्राह्मण को चीरा और उसके मौन आचरण को नंगा किया तब सारे मुसलमानों को आश्चर्य हुआ कि काफ़िर में मौमिन किस प्रकार गुप्त था। जय शिव ने अपने हाथ से ईसा के शब्दों को परे फेक कर उसकी आत्मा के नंगे दर्शन कराए तो हिंदू चकित हो गए कि वह नग्न करने अथवा नग्न होनेवाला उनका कौन सा शिव था।"

'मज़दूरी और प्रेम'से

"जब तक जीवन के अरण्य में पादरी, मौलवी, पंडित और साधु-संन्यासी हल, कुदाल और खुरपा लेकर मज़दूरी न करेंगे तब तक उनका मन और उनकी बुद्धि अनंत काल बीत जाने तक मलिन मानसिक जुआ खेलती रहेगी। उनका चितन बासी, उनकी ध्यान बासी, उनकी पुस्तकें बासी, उनका विश्वास बासी और उनका खुदा भी बासी हो गया है।"

इस कोटि के दूसरे लेखक हैं बाबू गुलाबराय, एम॰ ए॰, एल-एल॰ बी॰। उन्होंने विचारात्मक और भावात्मक दोनों प्रकार के निबंध थोड़े-बहुत लिखे हैं––जैसे, 'कर्तव्य संबंधी रोग, निदान और चिकित्सा', 'समाज और कर्तव्य, पालन', 'फिर निराशा क्यों'? 'फिर निराशा क्यों' एक छोटी सी पुस्तक है जिसमें कई विषयों पर बहुत छोटे छोटे आभासपूर्ण निबंध है। इन्हीं में से एक 'कुरूपता' भी है जिसका थोड़ा सा अंश नीचे दिया जाता है––

"सौंदर्य की उपासना करना उचित है सही, पर क्या उसी के साथ साथ कुरूपता घृणास्पद वा निंद्य है? नहीं, सौंदर्य का अस्तित्व ही कुरूपता के ऊपर निर्भर है। सुंदर