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गद्य-साहित्य का प्रसार

पदार्थ अपनी सुंदरता पर चाहे जितना मान करे, किंतु असुंदर पदार्थ की स्थिति में ही वह सुंदर कहलाता है। अंधों में काना ही श्रेष्ठ समझा जाता है।

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सत्ता-सागर में दोनों की स्थिति है। दोनों ही एक तारतम्य में बँधे हुए हैं। दोनों ही एक दूसरे में परिणत होते रहते हैं। फिर कुरूपता घृणा का विषय क्यों? रूपहीन वस्तु से तभी तक घृणा है जब तक हम अपनी आत्मा को संकुचित बनाए हुए बैठे हैं। सुंदर वस्तु को भी हम इसी कारण सुंदर कहते हैं कि उसमें हम अपने आदर्शों की झलक देखते हैं। आत्मा के सुविस्तृत और औदार्य्यपूर्ण हो जाने पर सुंदर और असुंदर दोनों ही समान प्रिय बन जाते हैं। कोई माता अपने पुत्र को कुरूपवान् नहीं कहती। इसका यही कारण है कि वह अपने पुत्र में अपने आपको ही देखती है। जब हम सारे संसार में अपने आपको ही देखेंगे तब हमको कुरूपवान् भी रूपवान् दिखाई देगा।"

अब निबंध का प्रसंग यहीं समाप्त किया जाता है। खेद है कि समास-शैली पर ऐसे विचारात्मक निबंध लिखनेवाले, जिनमें बहुत ही चुस्त भाषा के भीतर जिसमें एक पूरी अर्थ-परंपरा कसी हो, अधिक लेखक हमें न मिले।


समालोचना

समालोचना का उद्देश्य हमारे यहाँ गुण-दोष विवेचन ही समझा जाता रहा है। संस्कृत-साहित्य में समालोचना का पुराना ढंग यह था कि जब कोई आचार्य या साहित्य-मीमांसक कोई नया लक्षण-ग्रंथ लिखता था तब जिन काव्य-रचनाओं को वह उत्कृष्ट समझता था उन्हें रस, अलंकार आदि के उदाहरणों के रूप में उद्धत करता था और जिन्हें दुष्ट समझता था उन्हें दोषों के उदाहरण में देता था। फिर जिसे उसकी राय नापसंद होती थी वह उन्हीं उदाहरणों में से अच्छे ठहराए हुए पद्यों में दोष दिखाता था और बुरे ठहराए हुए पद्यों के दोष का परिहार करता था[१]। इसके अतिरिक्त जो दूसरा उद्देश्य


  1. साहित्य-दर्पणकार ने शृंगार रस के उदाहरण में "शून्य वासगृहं विलोक्य" यह श्लोक उद्धृत किया। रस-गंगाधरकार ने इस श्लोक में अनेक दोष दिखलाए और उदाहरण में अपना बनाया श्लोक भिड़ाया। हिंदी-कवियों में श्रीपति ने दोषों के उदाहरण में केशवदास के पद्य रखे हैं।