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हिंदी-साहित्य का इतिहास


समालोचना का होता है––अर्थात् कवियों की अलग-अलग विशेषताओं का दिग्दर्शन––उसकी पूर्ति किसी कवि की स्तुति में दो-एक श्लोकबद्ध उक्तियाँ कहकर ही लोग मान लिया करते थे, जैसे––

निर्गतासु न वा कस्य कालिदामस्य सूक्तिषु।
प्रीतिः मधुरसांद्रासु मंजरीष्विव जायते॥



उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थगौरवम्।
नेषधे पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणाः॥

किसी कवि या पुस्तक के गुणदोष या सुक्ष्म विशेषताएँ दिखाने के लिये एक दूसरी पुस्तक तैयार करने की चाल हमारे यहाँ न थी। योरप में इसकी चाल खूब चली। वहाँ समालोचना काव्य-सिद्धांत-निरूपण से स्वतंत्र एक विषय ही हो गया। केवल गुण-दोष दिखाने वाले लेख या पुस्तकों की धूम तो थोड़े ही दिनों रहती थी, पर किसी कवि की विशेषताओं का दिग्दर्शन करानेवाली, उसकी विचारधारा में डूबकर उसकी अंतर्वृत्तियों की छानबीन करानेवाली पुस्तक, जिसमें गुणदोष-कथन भी आ जाता था, स्थायी साहित्य में स्थान पाती थी। समालोचना के दो प्रधान मार्ग होते हैं––निर्णात्मक (Judicial Method) व्याख्यात्मक (Inductive Criticism)[१]। निर्णयात्मक आलोचना किसी रचना के गुण-दोष निरूपित कर उसका मूल्य निर्धारित करती है। उसमें लेखक या कवि की कहीं प्रशंसा होती हैं, कहीं निंदा। व्याख्यात्मक आलोचना किसी ग्रंथ में आई हुई बातों को एक व्यवस्थित रूप में सामने रखकर उनका अनेक प्रकार से स्पष्टीकरण करती है। यह मूल्य निर्धारित करने नहीं जाती। ऐसी आलोचना अपने शुद्ध रूप में काव्य-वस्तु ही तक परिमित रहती है अर्थात् उस के अंग-प्रत्यंग की विशेषताओं को ढूंढ़ निकालने और भावों की व्यवच्छेदात्मक व्याख्या करने में तत्पर रहती है। पर इस व्याख्यात्मक समालोचना के अंतर्गत बहुत सी बाहरी बातों का भी विचार होता


  1. Methods and Materials of Literary Criticism.––Gayley & Scott.