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गद्य-साहित्य का प्रसार


जिसमें सबसे बढ़कर नई बात यह थी कि 'देव' हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं। हिंदी के पुराने कवियों को समालोचना के लिये सामने लाकर मिश्रबंधुओं ने बेशक बड़ा जरूरी काम किया। उनकी बातें समालोचना कही जा सकती हैं या नहीं, यह दूसरी बात है। रीतिकाल के भीतर यह सूचित किया जा चुका कि हिंदी में साहित्य-शास्त्र का वैसा निरूपण नही हुआ जैसा संस्कृत में हुआ। हिंदी के रीति-ग्रंथों के अभ्यास से लक्षणा, व्यंजना, रस आदि के वास्तविक स्वरूप की सम्यक् धारणा नहीं हो सकती। कविता की समालोचना के लिये यह धारणा कितनी आवश्यक है, कहने की जरूरत नहीं। इसके अतिरिक्त उच्च कोटि की आधुनिक शैली की समालोचना के लिये विस्तृत अध्ययन, सूक्ष्म अन्वीक्षण-बुद्धि और मर्मग्राहिणी प्रज्ञा अपेक्षित है। "कारो कृतहि न मानै" ऐसे-ऐसे वाक्यों को लेकर यह राय जाहिर करना कि "तुलसी कभी राम की निंदा नहीं करते, पर सूर ने दो-चार स्थानों पर कृष्ण के कामों की निंदा भी की है," साहित्य-मर्मज्ञों के निकट क्या समझा जायगा?

"सूरदास प्रभु वै अति खोटे", "कारो कृतहि न मानै" ऐसे ऐसे वाक्यों पर साहित्यिक दृष्टि से जो थोड़ा भी ध्यान देगा, वह जान लेगा कि कृष्ण न तो वास्तव में खोटे कहे गए हैं, न काले कलूटे कृतघ्न। पहला वाक्य सखी की विनोद या परिहास की उक्ति है, सरासर गाली नहीं है। सखी का यह विनोद हर्ष का ही एक स्वरूप है जो उस सखी का राधाकृष्ण के प्रति रति-भाव व्यंजित करता है। इसी प्रकार दूसरा वाक्य विरहाकुल गोपी का वचन है जिससे कुछ विनोद-मिश्रित अमर्ष व्यंजित होता है। यह अमर्ष यहाँ विप्रलंभ शृंगार में रतिभाव का ही व्यंजक है।[१] इसी प्रकार कुछ 'दैन्य' भाव की उक्तियों को लेकर तुलसीदासजी खुशामदी कहे गए हैं। 'देव' को बिहारी से बड़ा सिद्ध करने के लिये बिहारी में बिना दोष के दोष ढूँढ़े गए हैं। 'सक्रोन' को 'संक्रांति' का (संक्रमण तक ध्यान कैसे जा सकता था?) अपभ्रंश समझ आप लोगों ने उसे बहुत बिगाड़ा हुआ शब्द माना है। 'रोज' शब्द 'रुलाई' के अर्थ में कबीर, जायसी आदि पुराने कवियों में न जाने कितना


  1. देखिए "भ्रमरगीतसार" की भूमिका।

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