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हिंदी-साहित्य का इतिहास

जगह आया है और आगरे आदि के आस-पास अब तक बोला जाता है, पर वह भी 'रोजा' समझा गया हैं। इसी प्रकार की वे-सिर-पैर की बातों से पुस्तक भरी है। कवियों की विशेषताओं के मार्मिक निरूपण की आशा से जो इसे खोलेगा, वह निराश ही होगा।

इसके उपरांत पंडित् पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी पर एक अच्छी आलोचनात्मक पुस्तक निकाली। इसमें उस साहित्य-परंपरा को बहुत ही अच्छा उद्घाटन है जिसके अनुकरण पर बिहारी ने अपनी प्रसिद्ध सतसई की रचना की। 'आर्यासप्तशती' और 'गाथासप्तशती' के बहुत से पद्यों के साथ बिहारी के दोहों का पूरा मेल दिखाकर शर्मा जी ने बड़ी विद्वत्ता के साथ एक चली आती हुई साहित्यिक परंपरा के बीच बिहारी को रखकर दिखाया। किसी चली आती हुई साहित्यिक परंपरा का उद्घाटन साहित्य-समीक्षक का एक भारी कर्तव्य हैं। हिंदी के दूसरे कवियों के मिलते-जुलते पद्यों की बिहारी के दोहों के साथ तुलना करके शर्मा जी ने तारतम्यिक आलोचना का शौक पैदा किया। इस पुस्तक में शर्माजी ने उन आक्षेपों का भी बहुत कुछ परिहार किया जो देव को ऊँचा सिद्ध करने के लिये बिहारी पर किए गए थे। हो सकता है कि शर्माजी ने भी बहुत से स्थलो पर बिहारी का पक्षपात किया हो, पर उन्होंने जो कुछ किया हैं वह अनूठे ढंग से किया है। उनके पक्षपात का भी साहित्यिक मूल्य हैं।

यहाँ पर यह बात सूचित कर देना आवश्यक हैं कि शर्माजी की यह समीक्षा भी रूढ़िगत (Conventional) है। दूसरे शृंगारी कवियों से अलग करनेवाली बिहारी की विशेषताओं के अन्वेषण और अंतःप्रवृत्तियों के उद्घाटन का––जो आधुनिक समालोचना का प्रधान लक्ष्य समझा जाता है––प्रयत्न इससे नही हुआ है। एक खटकनेवाली बात है, बिना जरूरत के जगह जगह चुहलबाजी और शाबाशी का महफिलो तर्ज।

शर्मा जी की पुस्तक से दो बातें हुई। एक तो "देव बड़े कि बिहारी" यह भद्दा झगड़ा सामने आया, दूसरे "तुलानात्मक समालोचना" के पीछे लोग बेतरह पड़े।