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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति
तृतीय उत्थान
(संवत् १९७५ से)

इस तृतीय उत्थान में हम वर्त्तमान काल में पहुँचते हैं जो अभी चल रहा है। इसमें आकर हिंदी गद्य-साहित्य के भिन्न भिन्न क्षेत्रों के भीतर अनेक नए रास्ते खुले जिनमें से कई एक पर विलायती गलियों के नाम की तख्तियाँ भी लगीं। हमारे गद्य-साहित्य का यह काल अभी हमारे सामने है। इसके भीतर रहने के कारण इसके संबंध में हम या हमारे सहयोगी जो कुछ कहेंगे वह इस काल का अपने संबंध में अपना निर्णय होगा। सच पूछिए तो वर्त्तमान काल, जो अभी चल रहा है, हमसे इतना दूर पीछे नहीं छूटा है कि इतिहास के भीतर आ सके। इससे यहाँ आकर हम अपने गद्य-साहित्य से विविध अंगों का संक्षिप्त विवरण ही इस दृष्टि से दे सकते हैं कि उनके भीतर की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियाँ लक्षित हो जायँ।

सब से पहले ध्यान लेखकों और ग्रंथकारों की दिन दिन बढ़ती संख्या पर जाता है। इन बीस इक्कीस वर्षों के बीच हिंदी-साहित्य का मैदान काम करने वालो से पूरा पूरा भर गया, जिससे उसके कई अंगों की बहुत अच्छी पूर्त्ति हुई, पर साथ ही बहुत सी फालतू चीजें भी इधर उधर बिखरीं। जैसे भाषा का पूरा अभ्यास और उसपर अच्छा अधिकार रखनेवाले, प्राचीन और नवीन साहित्य के स्वरूप को ठीक ठीक परखनेवाले अनेक लेखकों द्वारा हमारा साहित्य पुष्ट और प्रौढ़ हो चला, वैसे ही केवल पाश्चात्य साहित्य के किसी कोने में आँख खोलनेवाले और योरप की हर एक नई-पुरानी बात को "आधुनिकता" कहकर चिल्लानेवाले लोगों के द्वारा बहुत कुछ अनधिकार चर्चा––बहुत-सी अनाड़ीपन