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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति


(२) वह उन लोगों में से न था जो घास को थोड़ी देर भी अपने पैरों तले उगने देने हों। (वही)

(३) क्या संभव नहीं हैं कि भारत के बड़े बड़े स्वार्थ कुछ लोगों की नामावली उपस्थित करें। (आज, २८, अक्टूबर, १९३९)


उपन्यास-कहानी

इस तृतीय उत्थान में हमारा उपन्यास-कहानी साहित्य ही सबसे अधिक समृद्ध हुआ। नूतन विकास लेकर आनेवाले प्रेमचंद जो कर गए वह तो हमारे साहित्य की एक निधि ही है, उनके अतिरिक्त पं॰ विश्वंभरनाथ कौशिक, बाबू प्रतापनारायण श्रीवास्तव, श्रीजैनेंद्रकुमार ऐसे सामाजिक उपन्यासकार तथा बा॰ वृंदावनलाल वर्मा ऐसे ऐतिहासिक उपन्यासकार उपन्यास-भंडार की बहुत सुंदर पूर्ति करते जा रहे हैं। सामाजिक उपन्यासों में देश में चलनेवाले राष्ट्रीय तथा आर्थिक आदोलनों का भी आभास बहुत कुछ रहता है। तअल्लुकेदारों के अत्याचार, भूखे किसानों की दारुण दशा के बड़े चटकीले चित्र उनमें प्रायः पाए जाते हैं। इस संबंध में हमारा केवल यही कहना है कि हमारे निपुण उपन्यासकारों को केवल राजनीतिक दलों द्वारा प्रचारित बातें लेकर ही न चलना चाहिए, वस्तुस्थिति पर अपनी व्यापक दृष्टि भी डालनी चाहिए। उन्हें यह भी देखना चाहिए कि अँगरेजी राज्य जमने पर भूमि की उपज या आमदनी पर जीवन निर्वाह करनेवालों (किसानों और जमीदारों दोनों) की और नगर के रोजगारियों वा महाजनों की परस्पर क्या स्थिति हुई। उन्हें यह भी देखना चाहिए कि राजकर्मचारियों का इतना बड़ा चक्र ग्रामवासियों के सिर पर ही चला करता है, व्यापारियों का वर्ग उससे प्रायः बचा रहता है। भूमि ही यहाँ सरकारी आय का प्रधान उद्गम बना दी गई है। व्यापार-श्रेणियों को यह सुभीता विदेशी व्यापार को फूलता-फलता रखने के लिये दिया गया था, जिससे उनकी दशा उन्नत होती आई और भूमि से संबंध रखनेवाले सब वर्गों की––क्या जमींदार, क्या किसान, क्या मजदूर––गिरती गई।

जमींदारों के अंतर्गत हमें ९८ प्रतिशत साधारण जमींदारों को लेना चाहिए; २ प्रतिशत बड़े बड़े तअल्लुकेदारों को नहीं। किसान और जमींदार एक ओर