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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

हर्ष की बात है कि इमारे हिंदी-साहित्य में भी बा॰ भगवतीचरण वर्मा ने 'चित्रलेखा' नाम का इस ढंग का एक सुंदर उपन्यास प्रस्तुत किया है।

द्वितीय उत्थान के भीतर बँगला से अनूदित अथवा उनके आदर्श पर लिखे गए उपन्यासों में देश की सामान्य जनता के गार्हस्थ्य और पारिवारिक जीवन के बड़े मार्मिक और सच्चे चित्र रहा करते थे। प्रेमचंदजी के उपन्यासों में भी निम्न और मध्य श्रेणी के गृहस्थों के जीवन का बहुत सच्चा स्वरूप मिलता रहा है पर इधर बहुत से ऐसे उपन्यास सामने आ रहे हैं जो देश के सामान्य भारतीय जीवन से हटकर बिल्कुल योरपीय रहन सहन के साँचे में ढले हुए बहुत छोट-से वर्ग का जीवन-चित्र ही यहाँ से वहाँ तक अंकित करते हैं। उनसे मिस्टर, मिसेज, मिस, प्रोफेसर, होस्टल, क्लब, ड्राइंगरूम, टेनिस, मैच, सिनेमा, मोटर पर हवाखोरी, कॉलेज की छात्रावस्था के बीच के प्रणय-व्यवहार इत्यादि ही सामने आते हैं। यह ठीक है कि अँगरेजी शिक्षा के दिन दिन बढ़ते हुए प्रचार से देश के आधुनिक जीवन का यह भी एक पक्ष हो गया है। पर यह सामान्य पक्ष नहीं है। भारतीय रहन सहन, खान पान, रीति-व्यवहार प्रायः सारी जनता के बीच बने हुए हैं। देश के असली सामाजिक और घरेलू जीवन को दृष्टि से ओझल करना हम अच्छा नहीं समझते।

यहाँ तक तो सामाजिक उपन्यासों की बात हुई। ऐतिहासिक उपन्यास बहुत कम देखने में आ रहे हैं। एक प्रकार से तो यह अच्छा है। जब तक भारतीय इतिहास के भिन्न भिन्न कालों की सामाजिक स्थिति और संस्कृति का अलग अलग विशेष रूप से अध्ययन करनेवाले और उस सामाजिक स्थिति के सूक्ष्म ब्योरों की अपनी ऐतिहासिक कल्पना द्वारा उद्भावना करनेवाले लेखक तैयार न हों तब तक ऐतिहासिक उपन्यासों में हाथ लगाना ठीक नहीं। द्वितीय उत्थान के भीतर जो कई ऐतिहासिक उपन्यास लिखे गए या बंग भाषा से अनुवाद करके लाए गए, उनमें देश-काल की परिस्थिति का अध्ययन नहीं पाया जाता है अब किसी ऐतिहासिक उपन्यास में यदि बाबर के सामने हुक्का रखा जायगा, गुप्त-काल में गुलाबी और फीरोजी रंग की साड़ियाँ, इत्र, मेज पर सजे गुलदस्ते, झाड़ फानूस लाए जाएँगे, सभा के बीच खड़े होकर व्याखान दिए जाएँगे, और उन पर करतल-ध्वनि होगी; बात बात, में 'धन्यवाद', 'सहानुभूति' ऐसे