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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

योरप में नाटक और उपन्यास से काव्यत्व निकाल बाहर करने का जो प्रयत्न हुआ है, उसका कुछ कारण है। वहाँ जब फ्रांस और इटली के कला, वादियों दारा काव्य भी वेल-बूटे की नक्काशी की तरह जीवन से सर्वथा पृथक् कहा जाने लगा, तब जीवन को ही लेकर चलनेवाले नाटक और उपन्यास का उससे सर्वथा पृथक् समझा जाना स्वाभाविक ही था। पर इस अत्यंत पार्थक्य का आधार प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं। जगत् और जीवन के नाना पक्षों को लेकर प्रकृत काव्य भी बराबर चलेगा और उपन्यास भी। एक चित्रण और भाव-व्यंजना को प्रधान रखेगा, दूसरा घटनाओं के संचरण द्वारा विविध परिस्थितियों की उद्भावना को। उपन्यास न जाने कितनी ऐसी परिस्थितियाँ सामने लाते है जो काव्य-धारण के लिये प्रकृत मार्ग खोलती है।

उपन्यासों और कहानियों के समाजिक और ऐतिहासिक ये दो भेद तो बहुत प्रत्यक्ष है। ढाँचों के अनुसार जो तीन मुख्य भेद––कथा के रूप में, आत्मकथा के रूप में और चिट्टी-पत्री के रूप में––किए गए है उनमें से अधिकतर उदाहरण तो प्रथम के ही सर्वत्र हुआ करते हैं। द्वितीय के उदाहरण भी अब हिंदी में काफी है, जैसे, 'दिल की आग' (जी॰ पी॰ श्रीवास्तव)। तृतीय के उदाहरण हिंदी में बहुत कम पाए जाते है, जैसे 'चंद हसीनों के खतूत'। इस ढाँचे में उतनी सजीवता भी नही।

कथा-वस्तु के स्वरूप और लक्ष्य के अनुसार हिंदी के अपने वर्तमान उपन्यासों में हमे ये भेद दिखाई पड़ते है––

(१) घटना-वैचित्र्य-प्रधान अर्थात् केवल कुतूहलजनक, जेसे, जासूसी, और वैज्ञानिक अविष्कारों का चमत्कार दिखानेवाले। इनमें साहित्य का गुण अत्यंत अल्प होता है––केवल इतना ही होता है कि ये आश्चर्य और कुतूहल जगाते है।

(२) मनुष्य के अनेक पारस्परिक संबंधों को मार्मिकता पर प्रधान लक्ष्य रखनेवाले, जैसे, प्रेमचंदजी का 'सेवा-सदन', 'निर्मला', 'गोदान'; श्री विश्वंभर-