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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

कंजूसों पर विशेष कृपा हुई है। पर ये सब आलंबन जिस ढंग से सामने लाए गए हैं उसे देखने से स्पष्ट हो जायगा कि रस-सिद्धांत का पालन बड़ी सावधानी से हुआ है। रसों में हास्य रस का जो स्वरूप और जो स्थान है यदि वह बराबर दृष्टि में रहे तो अत्यंत उच्च और उत्कृष्ट श्रेणी के हास का प्रवर्तन हमारे साहित्य में हो सकता है।

हास्य के आलंबन से विनोद तो होता ही है, उसके प्रति कोई न कोई और भाव भी––जैसे, राग, द्वेष, घृणा, उपेक्षा, विरक्ति––साथ साथ लगा रहता है। हास्य रस के जो भारतीय आलंबन ऊपर बताए गए हैं वे सब इस ढंग से सामने लाए जाते हैं कि उनके प्रति द्वेष, घृणा इत्यादि न उत्पन्न होकर एक प्रकार का राग या प्रेम ही उत्पन्न होता है। यह व्यवस्था हमारे रस-सिद्धांत के अनुसार है। स्थायी भावों में आधे सुखात्मक हैं और आधे दुःखात्मक। हास्य आनंदात्मक भाव है एक ही आश्रय में, एक ही आलंबन के प्रति, आनंदात्मक और दुःखात्मक भावों को एक साथ स्थिति नहीं हो सकती। हास्य रस में आश्रय के रूप में किसी पात्र की अपेक्षा नही होती, श्रोता या पाठक ही आश्रय रहता है। अतः रस की दृष्टि से हास्य में द्वेष और घृणा नामक दुःखात्मक भावों की गुंजाइश नहीं। हास्य के साथ जो दूसरा भाव आ सकता है वह संचारी के रूप में ही। द्वेष या घृणा का भाव जहाँ रहेगी वहाँ हास की प्रधानता नहीं रहेगी, वह 'उपहास' हो जायगा। उसमें हास का सच्चा स्वरूप रहेगा ही नहीं। उसमें तो हास को द्वेष का व्यंजक या उसका आच्छादक मात्र समझना चाहिए।

जो बात हमारे यहाँ की रस-व्यवस्था के भीतर स्वतः सिद्ध है वही योरप में इधर आकर एक आधुनिक सिद्धांत के रूप में यों कही गई है कि 'उत्कृष्ट हास वही है जिसमें आलंबन के प्रति एक प्रकार का प्रेमभाव उत्पन्न हो अर्थात् वह प्रिय लगे'। यहाँ तक तो बात बहुत ठीक रही। पर योरप में नूतन सिद्धांत-प्रवर्त्तक बनने के लिये उत्सुक रहनेवाले चुप कब रह सकते हैं। वे दो कदम आगे बढ़कर आधुनिक 'मनुष्यता-वाद' या 'भूतदया-वाद' का स्वर ऊँचा करते हुए बोले "उत्कृष्ट हास वह है जिसमे आलंबन के प्रति दया या करुणा उत्पन्न हो।" कहने की आवश्यकता नहीं कि यह होली-मुहर्रम सर्वथा अस्वाभाविक,