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हिंदी-साहित्य का इतिहास


अवैज्ञानिक और रस-विरुद्ध है। दया या करुणा दुःखात्मक भाव है, हास आनंदात्मक। दोनों की एक साथ स्थिति बात ही बात है। यदि हास के साथ एक ही आश्रय में किसी और भाव का सामंजस्य हो सकता है तो प्रेम या भक्ति का ही। भगवान् शंकर के बौड़मपन का किस भक्तिपूर्ण विनोद के साथ वर्णन किया जाता है, वे किस प्रकार बनाए जाते हैं, यह हमारे यहाँ "शशि सी मची है त्रिपुरारि के तबेला में" देखा जा सकता है।

हास्य का स्वरूप बहुत ठीक सिद्धांत पर प्रतिष्ठित होने पर भी अभी तक उसका ऐसा विस्तृत विकास हमारे साहित्य में नहीं हुआ है जो जीवन के अनेक क्षेत्रों से––जैसे, राजनीतिक, साहित्यिक, धार्मिक, व्यावसायिक––आलंबन ले लेकर खड़ा करे।



नाटक

यद्यपि और देशों के समान यहाँ भी उपन्यास और कहानियों के आगे नाटकों का प्रणयन बहुत कम हो गया है, फिर भी हमारा नाट्य-साहित्य बहुत कुछ आगे बढ़ा है। नाटकों के बाहरी रूप-रंग भी कई प्रकार के हुए हैं और अवयवों के विन्यास और आकार-प्रकार से भी वैचित्र्य आया है। ढाँचों में जो विशेषता योरप के वर्त्तमान नाटकों में प्रकट हुई है, वह हिंदी के भी कई-नाटकों में इधर दिखाई पड़ने लगी है, जैसे अंक के आरंभ और बीच में भी समय, स्थान तथा पात्रों के रूप-रंग और वेश-भूषा का बहुत सूक्ष्म ब्योरे के साथ लंबा वर्णन। स्वगत भाषण की चाल भी अब उठ रही है। पात्रों के भाषण भी न अब बहुत लंबे होते हैं न लंबे लंबे वाक्यवाले। ये बातें सेठ गोविंददासजी तथा पं॰ लक्ष्मीनारायण मिश्र के नाटकों में पाई जायँगी। थिएटरों के कार्यक्रम में दो अवकाशों के विचार से इधर तीन अंक रखने की प्रवृत्ति भी लक्षित हो रही है। दो एक व्यक्ति अँगरेजी में एक अंकवाले आधुनिक नाटक देख उन्हीं के ढंग के दो एक-एकांकी नाटक लिखकर उन्हें बिल्कुल एक नई चीज कहते हुए सामने लाए। ऐसे लोगों को जान रखना चाहिए कि एक अंकवाले कई उप-रूपक हमारे यहाँ बहुत पहले से माने गए हैं।