पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/५७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५४९
गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

यह तो स्पष्ट है कि आधुनिक काल के आरंभ से ही बँगला की देखा-देखी हमारे हिंदी नाटकों के ढाँचे पाश्चात्य होने लगे। नांदी, मंगलाचरण तथा प्रस्तावना हटाई जाने लगी। भारतेंदु ने ही 'नीलदेवी' और 'सती-प्रताप' में प्रस्तावना नहीं रखी है; हाँ, आरंभ में यशोगान या मंगलगान रख दिया है। भारतेंदु के पीछे तो यह भी हटता गया। भारतेंदु-काल से ही अंकों का अवस्थान अँगरेजी ढंग पर होने लगा। अंकों के बीच के स्थान-परिवर्तन या दृश्य-परिवर्तन को 'दृश्य' और कभी कभी 'गर्भांक' शब्द रखकर सूचित करने लगे, यद्यपि 'गर्भांक' शब्द का हमारे नाट्यशास्त्र में कुछ और ही अर्थ। 'प्रसाद' जी ने अपने 'स्कंदगुप्त' आदि नाटकों में यह 'दृश्य' शब्द (जो अँगरेजी Scene का अनुवाद है) छोड़ दिया है और स्थान-परिवर्तन या पट-परिवर्तन के स्थलों पर कोई नाम नहीं रखा है। इसी प्रकार आजकल 'विष्कंभक' और 'प्रवेशक' का काम देनेवाले दृश्य तो रखे जाते है, पर ये नाम हटा दिए गए हैं। 'प्रस्तावना' के साथ 'उद्घातक', 'कथोद्घात' आदि का विन्यास-चमत्कार भी गया। पर ये युक्तियाँ सर्वथा अस्वाभाविक न थीं। एक बात बहुत अच्छी यह हुई है कि पुराने नाटकों में दरबारी विदूषक नाम का जो फालतू पात्र रहा करता था उसके स्थान पर कथा की गति से सबद्ध कोई पात्र ही हँसोड़ प्रकृति का बना दिया जाता है। आधुनिक नाटको में प्रसादजी के 'स्कंदगुप्त' नाटक का मुद्गल ही एक ऐसा पात्र है जो पुराने विदूषक का स्थानापन्न कहा जा सकता है।

भारतीय साहित्य शास्त्र में नाटक भी काव्य के ही अंतर्गत माना गया है अतः उसका लक्ष्य भी निर्दिष्ट शील स्वभाव के पात्रों को भिन्न भिन्न परिस्थितियों में डालकर उनके वचनों और चेष्टाओं द्वारा दर्शकों में रस-संचार करना ही रहा है। पात्रों के धीरोदात्त आदि बँधे हुए ढाँचे थे जिनमें ढले हुए सब पात्र सामने आते थे। इन ढाँचों के बाहर शील-वैचित्र्य दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता था। योरप में धीरे धीरे शील-वैचित्र्य-प्रदर्शन को प्रधानता प्राप्त होती गईं; यहाँ तक कि किसी नाटक के संबंध में वस्तुविधान और चरित्र-विधान की चर्चा का ही चलन हो गया। इधर, यथातथ्यवाद के प्रचार से वहाँ रहा सहा काव्यत्व भी झूठी भावुकता कहकर हटाया