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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

वाभिव्यंजक समीक्षा को निस्सारता प्रकट करनेवाली पुस्तकें बराबर निकल रही हैं[१]। इस ढंग की समीक्षाओं में प्रायः भाषा विचार में बाधक बनकर आ खड़ी होती है। लेखक का ध्यान शब्दों की तड़क-भड़क, उनकी आकर्षण योजना, अपनी उक्ति के चमत्कार, आदि में उलझा रहता है जिनके बीच स्वच्छंद विचारधारा के लिये जगह ही नहीं मिलती। विशुद्ध आलोचना के क्षेत्र में भाषा की क्रीड़ा किस प्रकार बाधक हुई है, कुछ बँधे हुए शब्द और वाक्य किस प्रकार विचारों को रोक रहे हैं, ऐसी बातें जिनकी कहीं सत्ता नहीं किस प्रकार घने वाग्जाल के भीतर से भूत बनकर झाँकती रही हैं, यह दिखाते हुए इस बीसवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध समालोचना-तत्त्वज्ञ ने बड़ी खिन्नता प्रकट की हैं[२]

हमारे यहाँ के पुराने व्याख्याताओं और टीकाकारों की अर्थक्रीड़ा प्रसिद्ध है। किसी पद्य का और का और अर्थ करना तो उनके बाएँ हाथ का खेल हैं। तुलसीदासजी की चौपाइयों से बीस बीस अर्थ करनेवाले अभी मौजूद हैं। अभी थोड़े दिन हुए, हमारे एक मित्र ने सारी 'बिहारी-सतसई' का शासरस-परक अर्थ करने की धमकी दी थी। फारसी के हाफिज आदि शायरों की शृंगारी उक्तियों के आध्यात्मिक अर्थ प्रसिद्ध हैं, यद्यपि अरबी-फारसी के कई पहुँचे हुए विद्वान् आध्यात्मिकता नहीं स्वीकार करते हैं। इस पुरानी प्रवृत्ति का नया संस्करण भी कहीं कहीं दिखाई पड़ने लगा हैं। रवींद्र बाबू ने अपनी प्रतिभा के बल से कुछ संस्कृत-काव्यों की समीक्षा करते हुए कहीं कहीं आध्यात्मिक अर्थों की योजना की


  1. देखिए Psychological Approach to Literary Criticism जिसमें यह अच्छी तरह दिखा दिया गया है कि प्रभावाभिव्यंजक समीक्षा कोई समीक्षा ही नहीं।
  2. A diligent search will still find many Mystic Beings.........sheltering in verbal thickets. While current attitudes to language persist, this difficulty of the imguistic phantom must still continue.

    ––'Principles of Literary Criticism'.

    By I. A. Richards