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हिंदी-साहित्य का इतिहास

है। 'प्राचीन साहित्य' नाम की पुस्तक में मेघदूत आदि पर जो निबंध हैं उनमें ये बातें मिलेगी। काशी के एक व्याख्यान में उन्होंने 'अभिज्ञानशाकुंतल' के सारे आख्यान का आध्यात्मिक पक्ष निरूपित किया था। इस संबंध में हमारा यही कहना है कि इस प्रकार की प्रतिभापूर्ण कृतियों को भी अपना अलग मूल्य है। वे कल्पनात्मक साहित्य के अंतर्गत अवश्य है, पर विशुद्ध समालोचना की कोटि में नहीं आ सकती है।

योरपवालों को हमारी आध्यात्मिकता बहुत पसंद आती है। भारतीयों की आध्यात्मिकता और रहस्यवादिता की चर्चा पच्छिम में बहुत हुआ करती है। इस चर्चा के मूल में कई बाते हैं। एक तो ये शब्द हमारी अकर्मण्यता और बुद्धि शैथिल्य पर परदा डालते है। अतः चर्चा या तारीफ करनेवालों में कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जो चाहते है कि यह परदा पड़ा रहे। दूसरी बात यह है कि ये शब्द पूरबी और पच्छिमी जातियों के बीच एक ऐसी सीमा बाँधते है जिससे पच्छिम में हमारे संबंध में एक प्रकार का कुतूहल-सा जाग्रत रहता है और हमारी बातें कुछ अनूठेपन के साथ कही जा सकती है। तीसरी बात यह है कि आधिभौतिक समृद्धि के हेतु जो भीषण संघर्ष सैकड़ो वर्ष तक योरप में रहा उससे क्लति और शिथिल होकर बहुत से लोग जीवन के लक्ष्य में कुछ परिवर्तन चाहने लगे––शांति और विश्राम के अभिलाषी हुए। साथ ही साथ धर्म और विज्ञान का झगड़ा भी बंद हुआ। अतः योरप में जो इधर, अध्यात्मिकता की चर्चा बढ़ी वह विशेषतः प्रतिवर्तन (Reaction) के रूप में। स्वर्गीय साहित्याचार्य पं॰ रामवतारजी पांडेय और चंद्रधरजी गुलेरी इस आध्यात्मिकता की चर्चा से बहुत घबराया करते थे।

पुस्तकों और कवियों की आलोचना के अतिरिक्त पाश्चात्य काव्य-मीमांसा को लेकर भी बहुत से लेख और कुछ पुस्तकें इस काल में लिखी गई––जैसे, बा॰ श्यासुंदरदास कृत साहित्यालोचन, श्री पदुमलाल पुन्नीखाल बख्शी कृत विश्व-साहित्य। इनमें से पहिली पुस्तक तो शिक्षोपयोगी है। दूसरी पुस्तक में योरोपीय साहित्य के विकास तथा पाश्चात्य काव्य-समीक्षकों के कुछ प्रचलित-मतों का दिग्दर्शन है।

इधर दो एक लेखकों की एक और प्रवृत्ति दिखाई पड़ रही है। वे योरप के