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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

कुछ कला संबंधी एकदेशीय और अत्युक्त मतों को सामने लाकर हिंदीवालों की आँखो में उसी प्रकार चकाचौंध उत्पन्न करना चाहते हैं जिस प्रकार कुछ लोग वहाँ के फैशन की तड़क-भड़क दिखाकर। जर्मनी, फ्रांस, इटली, रूस और स्वेडन इत्यादि अनेक देशों के नए-पुराने कवियों, लेखकों और समीक्षकों के नाम गिनाकर वे एक प्रकार का आतंक उत्पन्न करना चाहते हैं। वे कला संबंधी विलयिती पुस्तकों की बातें लेकर और कहीं मैटरलिंक (Materlinck), कहीं गेटे (Goethe), कहीं टाल्सटाय (Tolstoy) के उद्धरण देकर अपने लेखों की तड़क-भडक भर बढ़ाते हैं। लेखों को यहाँ से वहाँ तक पढ़ जाइए, लेखकों के अपने किसी विचार का कहीं पता न लगेगा। उद्धृत मतों की व्याप्ति कहाँ तक है, भारतीय सिद्धांतों के साथ उनका कहाँ सामजस्य है और कहाँ विरोध, इन सब बातों के विवेचन का सर्वथा अभाव पाया जाएगा। साहित्यिक विवेचन से संबंध रखनेवाले जिन भावों और विचारों के द्योतन के लिये हमारे यहाँ के साहित्य-ग्रंथों में बराबर से शब्द-प्रचलित चले आते हैं उनके स्थान पर भद्दे गढ़े हुए शब्द देखकर लेखकों की अनभिज्ञता की और बिना ध्यान गए नहीं रहता। समालोचना के क्षेत्र में ऐसे विचारशून्य लेखों से कोई विशेष लाभ नहीं।

पश्चिम के काव्य-कला संबंधी प्रचलित वादों में अकसर एकाग दृष्टि की दौड़ ही विलक्षण दिखाई पड़ा करती है। वहाँ के कुछ लेखक काव्य के किसी एक पक्ष को उसका पूर्ण स्वरूप मान, इतनी दूर तक ले जाते हैं कि उनके कथन में अनूठी सूक्ति का-सा चमत्कार आ जाता है और बहुत से लोग उसे सिद्धांत या विचार के रूप में ग्रहण कर चलते हैं। यहाँ हमारा काम काव्य के स्वरूप पर विचार करना या प्रबंध लिखना नही बल्कि प्रचलित प्रवृत्तियों और उनके उद्गमों तथा कारणों का दिग्दर्शन कराना मात्र है। अतः यहाँ काव्य या कला के संबंध में उन प्रवादों का, जिनका योरप में सबसे अधिक फैशन रहा है, संक्षेप में उल्लेख करके तब मैं इस प्रसंग को समाप्त करूँगा। इसकी आवश्यकता यहाँ मैं केवल इसलिये समझता हूँ कि एक ओर योरप में तो व्यापक और सूक्ष्म दृष्टि सपन्न समीक्षकों द्वारा इन प्रवादों का निराकरण हो रहा है, दूसरी ओर हमारे हिंदी साहित्य में इनकी भद्दी नकल शुरू हुई है।