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गद्य-साहित्य की वर्त्तमान गति

क्योंकि उसकी प्रकृति या सत्ता न तो प्रत्यक्ष जगत् का कोई अंग है, न अनुकृति। उनकी तो एक दुनिया ही निराली है––एकांत, स्वतःपूर्ण और स्वत्रंत।"[१]

काव्य और कला के संबंध में अब तक प्रचलित इस प्रकार के नाना अर्थवादों का पूरा निराकरण रिचर्ड्स (I. A. Richards) ने अपनी पुस्तक "साहित्यसमीक्षा सिद्धांत" (Principles of Literary Criticism)[२] में बड़ी सूक्ष्म और गंभीर मनोवैज्ञानिक पद्धति पर किया है। उपर्युक्त कथन में चारों मुख्य बातों की अलग अलग परीक्षा करके उन्होंने उनकी अपूर्णता, अयुक्तता और अर्थहीनता-प्रतिपादित की हैं। यहाँ उनके दिग्दर्शन का स्थान नहीं। प्रचलित सिद्धांत का जो प्रधान पक्ष है कि "कविता की दुनिया ही निराली हैं; उसकी प्रकृति या सत्ता न तो प्रत्यक्ष जगत् का कोई अंग हैं, न अनुकृति" इस पर रिचर्ड्स के वक्तव्य का सारांश नीचे दिया जाता हैं––

"यह सिद्धांत कविता को जीवन से अगल समझने का आग्रह करता है। पर स्वंय डाक्टर ब्रैंडले इतना मानते हैं कि जीवन के साथ उसका लगाव भीतर-भीतर अवश्य है कि। हमारा कहना है कि यही भीतरी लगाव असल चीज है। ज्ञो कुछ काव्यानुभव (Poetic experience) होता है वह जीवन से ही होकर आता है काव्य-जगत् की शेष जगत् से भिन्न कोई सत्ता नहीं है न उसके कोई अलौकिक या विशेष नियम है। उसकी योजना बिल्कुल वैसे ही अनुभवों से हुआ करती है जैसे और सब अनुभव होते हैं। प्रत्येक काव्य एक परिमित अनुभवखंड मात्र है जो विरोधी उपादानों के संसर्ग से भी चटपट और कभी देर में छिन्न-भिन्न हो जाता है। साधारण अनुभवों से उसमे यही विशेषता होती है कि उसकी योजना बहुत गूढ़ और नाजुक होती है। जरा सी ठेस से वह चूर चूर हो सकता है। उसकी एक बड़ी भारी विशेषता यह है कि वह एक हृदय से दूसरे हृदय में पहुँचाया जा सकता है। बहुत से हृदय उसका अनुभव बहुत थोड़े ही फेरफार के साथ कर सकते हैं। काव्यानुभव से मिलते–


  1. Oxford Lectures on Poetry.
  2. Third Edition, 1928.