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हिंदी-साहित्य का इतिहास

जुलते और भी अनुभव होते हैं, पर इस अनुभव की सबसे बड़ी विशेषता हैं। यही सर्वग्राह्यता (Communicability) इसीलिए इसके प्रतीति-काल में हमें इसे अपनी व्यक्तिगत विशेष बातों की छूत से बचाए रखना पड़ता है[१]। यह सबके अनुभव के लिये होता है, किसी एक ही के नहीं। इसीलिये किसी काव्य को लिखते या पढ़ते समय हमें अपने अनुभव के भीतर उस काव्य और उस काव्य से इतर वस्तुओं के बीच अलगाव करना पड़ता है। पर यह अलगाव दो सर्वथा भिन्न या असमान वस्तुओं के बीच नहीं होता, बल्कि एक ही कोटि की वृत्तियों के भिन्न भिन्न विधानों के बीच होता हैं[२]

यह तो हुई रिचर्ड्स की मीमांसा। अब हमारे यहाँ के संपूर्ण काव्यक्षेत्र की अंतःप्रकृति की छानबीन कर जाइए, उसके भीतर जीवन के अनेक पक्षों पर और जगत् के नाना रूपों के साथ मनुष्य-हृदय का गूढ़ सामंजस्य निहित मिलेगा। साहित्यशास्त्रियों का मत लीजिए तो जैसे संपूर्ण जीवन अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष का साधन रूप है वैसे ही उसका एक अंग काव्य भी। 'अर्थ' का स्यूल और संकुचित अर्थ द्रव्यप्राप्ति ही नहीं लेना चाहिए, उसका व्यापक अर्थ 'लोक की सुखसमृद्धि' लेना चाहिए। जीवन के और साधनों की अपेक्षा काव्यानुभव में विशेषता यह होती है कि वह एक ऐसी रमणीयता के रूप में होता है जिसमें व्यक्तित्व का लय हो जाता है। बाह्य जीवन और अनजीवन की कितनी उच्च भूमियों पर इसे रमणीयता का उद्घाटन हुआ है, किसी काव्य की उच्चता और उत्तमता के निर्णय में इसका विचार अश्वय होता आया है, और होगा। हमारे यहाँ के लक्षणग्रथों में रसानुभव को जो 'लोकोत्तर' और 'ब्रह्मानंद-सहोदर' आदि कहा


  1. इसी को साहित्य शास्त्र में 'साधारणीकरण' कहते हैं।
  2. But this is no severance between difference of the same activities The myth of a 'transmutation' or 'poetisation' of experience and that other myth of the 'contenplative' or 'aesthetic attitude' instead of talking about the concrete experiences which are Poems.