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हिंदी-साहित्य का इतिहास

सी बातों का आभास या तो स्वप्न में मिलता था अथवा तन्मयता की दशा में। कवियों को अपने भावों में मग्न होते देख लोग उन्हें भी इस प्रत्यक्ष जगत् और जीवन से अलग कल्पना के स्वप्न-लोक में विचरनेवाले जीव प्यार और श्रद्धा से कहने लगे। यह बात बराबर कवियों की प्रशंसा में अर्थवाद के रूप में चलती रही। पर ईसा की इस बीसवीं सदी में आकर वह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य के रूप में फ्रायड (Freude) द्वारा प्रदर्शित की गई। उसने कहा कि जिस प्रकार स्वप्न अतस्संज्ञा से निहित अतृप्त वासनाओ की तृप्ति का एक अंतर्विधान है, उसी प्रकार कलाओं को निर्माण करनेवाली कल्पना भी। इससे कवि कल्पना और स्वप्न का अभेद-भाव भी पक्का हो गया। पर सच पूछिए तो कल्पना में आई हुई वस्तुओं की अनुभूति और स्वप्न में दिखाई पड़नेवाली वस्तुओं की अनुभूति के स्वरूप में बहुत अंतर हैं। अतः काव्यरचना या काव्यचर्चा में 'स्वप्न' की बहुत अधिक भरमार अपेक्षित नहीं है। यों कहीं कहीं साम्य के लिये यह शब्द आ जाया करे तो कोई हर्ज नहीं।

अब 'मद' और 'मादकता' लीजिए। काव्यक्षेत्र में इसका चलन फारस में बहुत पहले से अनुमित होता है। यद्यपि इसलाम के पूर्व वहाँ का सारा साहित्य नष्ट कर दिया गया, उसका एक चिट भी कहीं नहीं मिलता है, पर शायरी में 'मद' और 'प्याले' की रूढ़ि बनी रही जिसको सूफियों ने और भी बढाया। सूफी शायर दीन-दुनिया से अलग, प्रेममद में मतवाले आजाद जीव माने जाते थे। धीरे धीरे कवियों के संबंध में भी 'मतवालेपन’ और 'फक्कड़पन' की भावना वहाँ जड़ पकड़ती गई और वहाँ से हिंदुस्तान में आई। योरप में गेटे और वर्ड्स्वर्थ के समय तक 'मतवालेपन' और 'फक्कड़पन' की इस भावना का कवि और काव्य के साथ कोई नित्य-सबंध नहीं समझा जाता था। जर्मन कवि गेटे बहुत ही व्यवहार-कुशल राजनीतिज्ञ था; इसी प्रकार वर्ड् स्वर्थ भी लोक-व्यवहार से अलग एक रिंद नहीं माना जाता था। एक खास ढंग का फक्कड़पन और मतवालापन वाइरन और शैली में दिखाई पड़ा जिनकी चर्चा योरप ही तक रहकर अँगरेजी साहित्य के साथ साथ हिंदुस्तान तक पहुँची। इससे मतवालेपन और फकड़पन की जो भावना पहले से फारसी साहित्य के प्रभाव से बँधती आ रही थी वह और भी पक्की हो गई।