पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( ५ )


अब रहीं शेष नौ पुस्तकें उनमें नं० २, ७, ९ और १० जैनधर्म के तत्व निरूपण पर हैं और साहित्य-कोटि में नहीं आ सकतीं। नं० ६ योग की पुस्तक है। नं० ३ और नं० ४ केवल नोटिस मात्र है; विषयों का कुछ भी विवरण नहीं है। इस प्रकार केवल दो साहित्यिक पुस्तकें बचीं जो वर्णनात्मक (डेस्क्रिप्टिव) हैं-एक में नंद के ज्योनार का वर्णन है, दूसरी में गुजरात के रैवतक पर्वत का। अतः इन पुस्तकों की नामावली से मेरे निश्चय में किसी प्रकार का अतर नहीं पड़ सकता। यदि ये भिन्न भिन्न प्रकार की ९ पुस्तके साहित्यिक भी होती तो भी मेरे नामकरण में कोई बाधा नही डाल सकती थीं; क्योंकि मैने ९ प्रसिद्ध वीरगाथात्मक पुस्तकों का उल्लेख किया है।

एक ही काल और एक ही कोटि की रचना के भीतर जहाँ भिन्न भिन्न प्रकार की परंपराएँ चली हुई पाई गई है वहाँ अलग शाखाएँ करके सामग्री का विभाग किया गया है। जैसे, भक्तिकाल के भीतर पहले तो दो काव्य-धाराएँ-निर्गुण धारा और सगुण धारा—निर्दिष्ट की गई है। फिर प्रत्येक धारा की दो दो शाखाएँ स्पष्ट रूप से लक्षित हुई हैं—निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी और प्रेममार्गी (सूफी) शाखा तथा सगुण धारा की रामभक्ति और कृष्ण-भक्ति शाखा। इन धाराओं और शाखाओं की प्रतिष्ठा यों ही मनमाने ढंग पर नहीं की गई है। उनकी एक दूसरी से अलग करनेवाली विशेषताएं अच्छी तरह दिखाई भी गई हैं और देखते ही ध्यान में आ भी जायँगी।

रीति-काल के भीतर रीतिबद्ध रचना की जो परंपरा चली है उसका उप-विभाग करने का कोई संगत आधार मुझे नहीं मिला। रचना के स्वरूप आदि में कोई स्पष्ट भेद निरूपित किए बिना विभाग कैसे किया जा सकता है? किसी काल-विस्तार को लेकर यों ही पूर्व और उत्तर नाम देकर दो हिस्से कर डालना ऐतिहासिक विभाग नहीं कहला सकता। जब तक पूर्व और उत्तर के अलग अलग लक्षण न बताए जायँगे तब तक इस प्रकार के विभाग का कोई अर्थ नहीं। इसी प्रकार थोडे थोड़े अंतर पर होनेवाले कुछ प्रसिद्ध कवियों के नाम पर अनेक काल बाँध चलने के पहले यह दिखाना आवश्यक है कि प्रत्येक काल-प्रवर्तक कवि का यह प्रभाव उनके काल में होनेवाले सब कवियों में सामान्य रूप से पाया जाता है। विभाग का कोई पुष्ट आधार होना चाहिए।