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वीरगाथा

उपर्युक्त विवेचन के अनुसार यह पुस्तक न तो वस्तु के विचार से और न भाषा के विचार से अपने असली और मूल रूप में कही जा सकती है। रायबहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे हम्मीर के समय की रचना कहा है। (राजपूताने का इतिहास, भूमिका, पृष्ठ १९)। यह नरपति नाल्ह की पोथी का विकृत रूप अवश्य है जिसके आधार पर हम भाषा और साहित्य संबंधी कई तथ्यों पर पहुँचते हैं। ध्यान देने की पहली बात है, राजपूताने के एक भाट का अपनी राजस्थानी में हिंदी का मेल करना। जैसे, "मोती का आखा किया"। "चंदन काठ को माँड़वो"। "सोना की चोरी", "मोती की माल” इत्यादि। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि प्रादेशिक बोलियो के साथ साथ ब्रज या मध्यदेश की भाषा का आश्रय लेकर एक सामान्य साहित्यिक भाषा भी स्वीकृत हो चुकी थी जो चारणों में 'पिंगल' भाषा के नाम से पुकारी जाती थी। अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था, वह 'डिंगल', कहलाता था। हिंदी-साहित्य के इतिहास में हम केवल पिंगल भाषा में लिखे हुए ग्रंथों का ही विचार कर सकते हैं। दूसरी बात जो कि साहित्य से संबंध रखती है, वीर और शृंगार का मेल है। इस ग्रंथ में शृंगार की ही प्रधानता है, वीररस का किंचित् आभास मात्र है। संयोग और वियोग के गीत ही कवि ने गाए हैं।

'बीसलदेवरासो' के कुछ पद्य देखिए—

परणबा[१] चाल्यो बीसलराय। चउरास्या[२] सहु[३] लिया बोलाइ।
जान-तणी[४] साजति करउ। जीरह रँगावली पहरज्यो टोप॥
XXXX
हुअउ पहसारउ बीसलराव। आवी सयल[५] अँतेवरी राव।[६]
रूप अपूरब पेषियइ। इसी अली नहिं सयल संसार॥
अति रंग स्वामी सूँ मिली राति। बेटी राजा भोज की॥
XXXX
गरब करि उभो[७] छई साँभरयो राव। मो सरीखा नहिं ऊर भुवाल॥
म्हाँ घरि[८] साँभर उग्गहरु। चिहुँ दिसि थाण जैसलमेर॥

 


  1. ब्याहने।
  2. सामंतों को।
  3. सब।
  4. यान की, बारात की।
  5. सब।
  6. अंतःपुर।
  7. खड़ा है।
  8. घर में।