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हिंदी-साहित्य का इतिहास

इस प्रसंग में इतना लिखने का प्रयोजन केवल यही है, की योग्य के साहित्य-क्षेत्र में फैशन के रूप में प्रचलित बातों को कच्चे-पक्के ढंग से सामने लाकर कुतुहल उत्पन्न करने की चेष्टा करना अपने मस्तिकशून्यता के साथ ही साथ समस्त हिंदी पाठकों पर मस्तिकशुन्यता का आरोप करना है। काव्य और कला पर निकलने वाले भड़कीले लेखों में आवश्यक अनिशता और स्वतंत्र विचार का अभाव देख दुःख होता है। इधर कुछ दिनों में "सत्यं, शिव, सुदरम्" की बड़ी धूम हैं, जिसे कुछ लोग शायद उपनिषद्-वाक्य समझकर "अपने यहाँ भी कहा है" लिखकर उद्धृत किया करते है। यह कोमल पदावली ब्रह्मसमाज के महृर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर की हैं और वास्तव में The True, the Good and the Beautiful का अनुवाद है[१]। बस इतना और कहकर मैं इस प्रसंग को समाप्त करता हूँ, किसी साहित्य में केवल बाहर की भद्दी नकल उसकी अपनी उन्नति या प्रगति नहीं की जा सकती। बाहर से सामग्री आए, खूब आए, पर वह कूढ़ा करकट के रूप में न इकठ्ठी की जाय। उसकी कड़ी परीक्षा हो, उसपर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाय; जिससे हमारे साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचे।

 


  1. Thus arises the phantom of the aesthetic mode or aesthetic state a legacy from the days of abstract investigation into the Good the Beautiful and the True.

    ––Principles of Literary Criticism.
    (I.A. Richards)