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आधुनिक काल

( संवत् १९०० से...)

काव्य-खंड

पुरानी धारा

गद्य के आविर्भाव और विकास-काल से लेकर अब तक कविता की वह परंपरा भी चलती आ रही है जिसका वर्णन भक्ति-काल और रीति-काल के भीतर हुआ है। भक्ति-भाव के भजनों, राजवंश के ऐतिहासिक चरित-काव्यों, अलंकार और नायिकाभेद के ग्रंथों तथा शृंगार और वीर-रस के कवित्त-सवैयों और दोहों की रचना बराबर होती आ रही है। नगरों के अतिरिक्त हमारे ग्रामों में भी न जाने कितने बहुत अच्छे कवि पुरानी परिपाटी के मिलेंगे। ब्रजभाषा-काव्य की परम्परा गुजरात से लेकर बिहार तक और कुमाऊँ-गढ़वाल से लेकर दक्षिण भारत की सीमा तक बराबर चलती आई है। काश्मीर के किसी ग्राम के रहनेवाले ब्रजभाषा के एक कवि का परिचय हमें जम्मू में किसी महाशय ने दिया था और शायद उनके दो-एक सवैये भी सुनाए थे।

गढ़वाल के प्रसिद्ध चित्रकार मोलाराम ब्रजभाषा के बहुत अच्छे कवि थे जिन्होंने अपने "गढ़ राजवंश" काव्य में गढ़वाल के ५२ राजाओं का वर्णन दोहा चौपाइयों में किया है। वे श्रीनगर (गढ़वाल) के राजा प्रद्युम्नसाह के समय में थे। कुमाऊँ-गढ़वाल पर जब नेपाल का अधिकार हुआ तब नेपाल सूबेदार हस्तिदल चौतरिया के अनुरोध से उन्होंने उक्त काव्य लिखा था। मोलाराम का जन्म संवत् १८१७ मे और मृत्यु १८९० में हुई। उन्होंने ग्रंथ में बहुत सी घटनाओं का आँखों-देखा वर्णन लिखा है, इससे उसके ऐतिहासिक मूल्य भी हैं।

ब्रजभाषा-काव्य-परंपरा के कुछ प्रसिद्ध कवियों और उनकी रचनाओं का उल्लेख नीचे किया जाता है––

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