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हिंदी-साहित्य का इतिहास

किया करते थे। "चरचा चलिवे की चलाइए ना" को लेकर बनाया हुआ उनका यह अनुप्रासपूर्ण सवैया देखिए––

बगियानं वसंत वसेरो कियो, बसिए तेहि त्यागि तपाइए ना।
दिन काम-कुतूहल के जो बनै, तिन बीच बियोग बुलाइए ना॥
'धन प्रेम' बढाय कै प्रेम, अहो! बिथा-बारि वृथा बराइए ना।
चित चैत की चाँदनी चाह भरी, चरचा चतिबे की चलाइए ना॥

चौधरी साहब ने भी सर्वसाधारण में प्रचलित कजली, होली आदि गाने की चीजें बहुत बनाई हैं। 'कजली-कादंबिनी' में उनकी बनाई कजलियों का संग्रह है।

ठाकुर जगमोहनसिंह जी के सवैएँ भी बहुत सरस होते थे। उनके शृंगारी कवित्त-सवैयों का संग्रह कई पुस्तकों में है। ठाकुर साहब ने कवित्त सवैयों में "मेघदूत" का भी बहुत सरस अनुवाद किया है। उनकी शृंगारी कविताएँ 'श्यामा' से ही संबंध रखती हैं और 'प्रेम-संपत्तिलता' (संवत् १८८५), 'श्यामालता' और 'श्याम-सरोजिनी' (संवत् १८८६) में संग्रहीत हैं। 'प्रेमसंपत्तिलता' का एक सवैया दिया जाता हैं––

अब यों उर आवत है सजनी, मिलि जाउँ गरे लगिकै छतियाँ।
मन की करि भाँति अनेकन औ मिलि कीजिय री रस की बतियाँ॥
हम हारि अरी करि कोटि उपाय, लिखी बहु नैहभरी पतियाँ।
जगमोहन मोहनी मूरति के दिन कैसे कटैं दुख की रतियाँ॥

पंडित अबिकादत्त व्यास और बाबू रामकृष्ण वर्मा (बलवीर) के उत्साह से ही काशी-कवि-समाज चलता रहा। उसमें दूर दूर कविजन भी कभी कभी आ जाया करते थे। समस्याएँ कभी कभी बहुत टेढ़ी दी जाती थीं––जैसे, "सूरज देखि सकैं नहीं घुग्धू", "मोम के मंदिर माखन के मुनि बैठे हुतासन आसन मारे"। उक्त दोनों समस्याओं की पूर्ति व्यासजी ने बड़े विलक्षण ढंग से की थी। उक्त समाज की ओर से ही शायद "समस्यापूर्ति-प्रकाश" निकला था जिसमें "व्यासजी" और "बलवीरजी" (रामकृष्ण वर्मा) की बहुत सी पूर्तियाँ हैं। व्यासजी का "बिहारी-बिहार" (बिहारी के सब दोहों पर कुंडलियाँ)