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हिंदी-साहित्य का इतिहास

वारि-फुहार-भरे भढग, सोह सोढंग कुंजर से मतवारे।
बीजुरी-जोति पूजा फहरै-धन गर्जन शब्द सोई है नगारे॥
रोर को घोर को घोर न छोर, नरेशन की-सी छटा छवि धारे।
कामिन के मन को प्रियपप्स, पायो, प्रिये नव मोहिनी टारे॥

ब्रजभाषा की पुरानी परिपाटी के कवियों में स्वर्गीय बाबू जगन्नाथदास (रत्नाकर) का स्थान बहुत ऊँचा माना जाता है। इनका जन्म काशी में भाद्रपद शुक्ल ६ सं॰ १९२३ और मृत्यु आषाढ़ कृष्ण ३ सं॰ १९८९ को हरिद्वार में हुई। भारतेंदु के पीछे संवत् १९४६ से ही ये ब्रजभाषा में कविता करने लगे थे। 'हिंडोला' आदि इनकी पुस्तकें बहुत पहले निकाली थीं। काव्य-संबंधी एक पत्रिका भी इन्होंने कुछ दिनों तक निकाली थी। इनकी कविता बड़े बड़े पुराने कवियों के टक्कर की होती थी। पुराने कवियों में भी इनकी सी सूझ और उक्ति-वैचित्र्य बहुत कम देखा जाता हैं। भाषा भी पुराने कवियों की भाषा से चुस्त और गठी हुई होती थी। ये साहित्य तथा ब्रजभाषा-काव्य के बहुत बड़े मर्मज्ञ माने जाते थे।

इन्होंने 'हरिश्चंद्र', 'गंगावतरण' और 'उद्धव शतक' नाम के तीन बहुत ही सुंदर प्रबंध-काव्य लिखे है। अँगरेज कवि पोप के समालोचना संबंधी प्रसिद्ध काव्य (Essay on Criticism) का रोला छंदों में अच्छा अनुवाद इन्होंने किया है। फुटकल रचनाएँ तो इनकी बहुत अधिक हैं, शृंगार और वीर दोनों की। इनकी रचनाओं का बहुत बड़ा संग्रह "रत्नाकर" के नाम से काशीनागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हो चुका है। 'गंगावतरण' में गंगा के आकाश से उतरने और शिव के उन्हें सँभालने के लिये संनद्ध होने का वर्णन बहुत ही ओजपूर्ण है। 'उद्धवशतक' की मार्मिकता और रचना-कौशल भी अद्वितीय हैं। उसके दो कवित नीचे दिए जाते हैं।

कान्ह-दूत कैधौं ब्रह्मदूत ह्वै पधारे आप,
धारे प्रन फेरन कौ मति ब्रजबारी की
कहै रतनाकर पै प्रीति-रीति जानत ना,
ठानत अनीति आनि नीति लै अनारी की॥