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हिंदी-साहित्य का इतिहास

"गरबि न बोलो हो साँभरया-राव। तो सरीखा घगा और भूवाल॥
एक उड़ीसा को धणी[१]। बचन हमारइ तू मानि जु मानि॥
ज्यूँ थारइ[२] साँभर उग्गहइ। राजा उणि घरि उग्गहइ हीरा-खान"॥
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कुँवरि कहइ "सुणि, साभरया राव। काई[३] स्वागी तू उलगई[४] जाइ?
कहेउ हमारउ जइ सुणउ। थारइ छइ[५] साठि अंतेवरी नारि"॥
"कड़वा बोल न बोलिस नारि। तू मो मेल्हसी[६] चित्त बिसरि"॥
जीभ न जीभ विगोयनो[७]। दव का दाधा कुपनी मेल्हइ[८]
जीभ का दाधा नु पाँगुरइ[९]। नाल्ह कहइ सुणीजइ सब कोइ॥
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आव्यो राजा मास बसंत। गढ़ माहीं गूड़ी ऊछली[१०]
जइ धन मिलती अंग सँभार। मान-भंग होतो बाल हो[११]

ईणी परिरहता राज दुवारि[१२]


(३) चंद वरदाई (संवत् १२२५-१२४९)——ये हिंदी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका पृथ्वीराजरासो हिंदी का प्रथम महाकाव्य है। चंद दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट् महाराज पृथ्वीराज के सामंत और राजकवि प्रसिद्ध हैं। इससे इनके नाम में भावुक हिंदुओं के लिये एक विशेष प्रकार का आकर्षण है। रासो के अनुसार ये भट्ट जाति के जगात नामक गोत्र के थे। इनके पूर्वजों की भूमि पंजाब थी जहाँ लाहौर में इनका जन्म हुआ था। इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था। ये महाराज पृथ्वीराज के राजकवि ही नहीं उनके सखा शौर 'सामंत भी थे, तथा षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य,


  1. स्वामी; राजा।
  2. तुम्हारे (यहाँ)।
  3. क्यों।
  4. परदेश में।
  5. तेरे हैं।
  6. भुला डाला।
  7. बात से बात नहीं छिपाई जा सकती।
  8. आग का जला कोपल छोड़ दे तो छोड़ दे।
  9. जीभ का जला नहीं पनपता।
  10. आकाशदीप जलाए गए।
  11. यदि वह धन्या या स्त्री अँग सँभालकर ( तुरंत ) मिलती तो उस बाला का मान-भंग होता।
  12. (और) इसे परिरंभता (आलिंगन करता) राजा द्वार पर ही।