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पुरानी धारा

मान्यो हम, कान्ह ब्रह्म एक ही कह्यो जो तुम,
तौ हूँ हमैं भावति न भावना अन्यारी सी।
जैहे बनि बिगिरि न बारिधिता बारिधि की,
बूँढता बिलैहै बूँद विवस विचारी की॥


धरि राखौ शान गुन गौरव गुमान गोइ,
गोपिन को आवत न भावत भडंग है।
कहे रतनाकर करत टाँय टाँय वृथा,
सुनत न काऊ यहाँ यह मुदचंग है॥
और हू उपाय केते सहज सुढंग ऊधौ!
साँस रोकिये को कहा जोग ही कुढंग है?
कुटिल कटारी है, अटारी है उतंग अति,

जमुना-तरंग है, तिहारो सतसंग है॥

कानपुर के राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' की कविता भी ब्रजभाषा के पुराने कवियों का स्मरण दिलानेवाली होती थी। जब तक ये कानपुर में रहे तब तक कविता की चर्चा की बड़ी धूम रही। वहाँ के 'रसिक समाज' में पुरानी परिपाटी के कवियों की बड़ी चहल-पहल रहा करती थी। "पूर्ण" जी ने कुछ दिनों तक 'रसिकवाटिका' नाम की एक पत्रिका भी चलाई, जिसमें समस्यापूत्तियाँ और पुराने ढंग की कविताएँ छपा करती थीं। खेद है कि केवल ४७ वर्ष की अवस्था में ही संवत् १९७७ में इनका देहांत हो गया। इनकी रचना कैसी सरस होती थी और ललित पदावली पर इनका, कैसा अच्छा अधिकार था, इसका अनुमान इनके "धाराधर धावन", (मेघदूत का अनुवाद) से उद्धृत इस पद्य से हो सकता है––

नव कलित केसर-वलित हरित सुपीत नीष निहारि कै।
करि असन दल कँदलीन जो कलियाहिं प्रथम कछार पै॥
है घन? विपिन थल अमल परिमल पाय भूतल कौ भली।
मधुकर मतंग कुरंग वृंद जनायहैं तेरी गली॥