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पुरानी धारा

आधुनिक काव्य-क्षेत्र में दुलारेलालजी ने ब्रजभाषा-काव्य-चमत्कार-पद्धति का एक प्रकार से पुनरुद्धार किया है। इनकी "दुलारे-दोहावली" पर टीकमगढ़ राज्य की ओर से २०००) का 'देव-पुरस्कार' मिल चुका है। 'दोहावली' के कुछ दोहे देखिए––

तन-उपवन सहिहै कहा बिछुरन झंझावात।
उड्यो जात उर-तरु जबै चलिबे ही की बात॥
दमकति दरपन-दरप दरि दीपसिखा-दुति देह।
वह दृढ इक दिसि दिपत, यह मृदु दस दिसनि स्नेह॥
झर सम दीजै देस हित झरझर जीवन-दान।
रुकि रुकि यों चरसा सरिस दैबो कहा, सुजान?
गाँधी गुरु तें ग्याँन लै चरखी अनहद जोर।
भारत सबद तरंग पै बहेत मुकुति को ओर॥

अभी थोड़े दिन हुए, अयोध्या के पं॰ रामनाथ ज्योतिषी ने राम-कथा लेकर अपना 'रामचंद्रोदय काव्य' लिखा है जिसपर उन्हे २०००) का 'देव पुरस्कार' मिला है।

आधुनिक विषयों को लेकर कविता करनेवाले कई कवि जैसे, स्व॰ नाथूरामशंकर शर्मा, लाला भगवानदीन, पुरानी परिपाटी की बड़ी सुंदर कविता करते थे। पं॰ गयाप्रसादजी शुक्ल 'सनेही' के प्रभाव से कानपुर में ब्रजभाषाकाव्य के मधुर स्रोत अभी बराबर वैसे ही चल रहे हैं, जैसे 'पूर्ण' जी के समय में चलते थे। नई पुरानी दोनों परिपाटियों के कवियों का कानपुर अच्छा केंद्र हैं। ब्रजभाषा-काव्य-परंपरा किस प्रकार जीती जागनी चली चल रही है, यह हमारे वर्तमान कवि-संमेलनों में देखा जा सकता है।