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हिंदी-साहित्य का इतिहास

जो सपने नहिं कान, सो जय आरज शब्द" को सुन और "फरकि उठीं सबकी भुजा, खरकि उठी तरवार। क्यो आपुहि ऊँचे भए आर्य मोछ के बार" का कारण जान, प्राचीन आर्य-गौरव का गर्व कुछ आ ही रहा था कि वर्तमान अधोगति का दृश्य ध्यान में आया और फिर वही "हाय भारत!" की धुन!

हाय! वहै भारत-भुव भारी। सब ही विधि सों भई दुखारी।
हाय! पंचनद, हा पानीपत। अजहुँ रहें तुम धरनि विराजत।
हाय चितौर! निलज भारी। अजहुँ खरो भारतहिं मँझारी।
तुममें जल नहिं जमुना गंगा। बढ़हुँ वेगि दिने प्रवल तरंगा?
दोरहु किन झट मथुरा कासी? धोवहु यह कलंक की रासी।

'चित्तौर', 'पानीपत' इन नामों में हिंदू हृदय के लिये कितने भावों की व्यंजना भरी है। उसके लिये ये नाम ही काव्य है। नीलदेवी में यह कैसी करुण पुकार है––

कहाँ करुणानिधि केसव सोए?
जागत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए॥

यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि भारतेंदुजी ने हिंदी-काव्य को केवल नए नए विषयों की ओर ही उन्मुख किया, उसके भीतर किसी नवीन विधान या प्रणाली का सूत्रपात नहीं किया। दूसरी बात उनके संबंध में ध्यान देने की यह है कि वे केवल "नरप्रकृति" के कवि थे, बाह्य प्रकृति की अनंतरूपता के साथ उनके हृदय का सामंजस्य नहीं पाया जाता। अपने नाटकों में दो एक जगह उन्होंने जो प्राकृतिक वर्णन रखे हैं (जैसे सत्यहरिश्चंद्र में गंगा का वर्णन, चंद्रावली में यमुना का वर्णन) वे केवल परंपरा-पालन के रूप में है। उनके भीतर उनका हृदय नहीं पाया जाता। वे केवल उपमा और उत्प्रेक्षा के चमत्कार के लिये लिखे जान पड़ते हैं। एक पंक्ति में कुछ अलग अलग वस्तुएँ और व्यापार हैं और दूसरी पंक्ति में उपमा या उत्प्रेक्षा‌। कहीं कहीं तो यह अप्रस्तुत विधान तीन पंक्तियों तक चला चलता है।

अंत में यह सूचित कर देना आवश्यक है कि गद्य को जिस परिमाण में भारतेंदु ने नए नए विषयों और भाग की ओर लगाया उस परिमाण में पद्य