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नई धारा

को नहीं। उनकी अधिकांश कविता तो कृष्णभक्त कवियों के अनुकरण पर गेय पदों के रूप में है जिनमें राधाकृष्ण की प्रेमलीला और विहार का वर्णन है। शृंगाररस के कवित्त-सवैयों का उल्लेख पुरानी धारा के अंतर्गत हो चुका है[१]। देशदशा, अतीत गौरव आदि पर उनकी कविताएँ या तो नाटकों में रखने के लिये लिखी गईं अथवा विशेष अवसरों पर––जैसे प्रिंस आफ वेल्स (पीछे सम्राट् सप्तम एडवर्ड) का आगमन, मिस्र पर भारतीय सेना द्वारा ब्रिटिश सरकार की विजय––पढ़ने के लिये। ऐसी रचनाओं में राजभक्ति और देशभक्ति का मेल आजकल के लोगों को कुछ विलक्षण लग सकता है। देशदशा पर दो एक होली या बसंत आदि गाने की चीजे फुटकल भी मिलती है। पर उनकी कविताओं के विस्तृत संग्रह के भीतर आधुनिकता कम ही मिलेगी।

गाने की चीजों में भारतेदु ने कुछ लावनियाँ और ख्याल भी लिखे जिनकी भाषा खड़ी बोली होती थी।

भारतेंदुजी स्वयं पद्यात्मक निबंधों की ओर प्रवृत्त नहीं हुए, पर उनके भक्त और अनुयायी पं॰ प्रतापनारायण मिश्र इस ओर बढ़े। उन्होंने देश-दशा पर आँसू बहाने के अतिरिक्त 'बुढापा', 'गोरक्षा' ऐसे विषय भी कविता के लिये चुने। ऐसी कविताओं में कुछ तो विचारणीय बातें हैं, कुछ भाव-व्यंजना और विचित्र विनोद। उनके कुछ इतिवृत्तात्मक पद्य भी हैं जिनमें शिक्षितों के बीच प्रचलित बातें साधारण भाषण के रूप में कही गई है। उदाहरण के लिये 'क्रंदन' की ये पंक्तियाँ देखिए––

तबहिं लख्यो जँह रह्यो एक दिन कंचन बरसत।
तँह चौथाई जन रूखी रोटिहु को तरसत॥
जहाँ कृषी, वाणिज्य शिल्पसेवा सब माहीं।
देसिन के हित कछू तत्त्व कहुँ कैसहु नाहीं॥
कहिय कहाँ लगि नृपति दबे हे जहँ ऋन-भारन।
कहँ तिनकी धनकथा कौन जे गृही सधारन॥


  1. देखो पृष्ठ ५८१ ।