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हिंदी-साहित्य का इतिहास

इस प्रकार के इतिवृत्तात्मक पद्य भारतेंदुजी ने भी कुछ लिखे है। जैसे––

अँगरेज-राज सुख-साज सजे सब भारी।
पै थन बिदेस चलि जात यहै अति ख्यारि॥

मिश्रजी की विशेषता वास्तव में उनकी हास्य-विनोदपूर्ण रचनाओं में दिखाई पड़ती हैं। 'हरगंगा', 'तृप्यंताम्', इत्यादि कविताएँ बड़ी ही विनोदपूर्ण और मनोरंजक है। 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' वाली 'हिंदी की हिमायत' भी बहुत प्रसिद्ध हुई।

उपाध्याय पं॰ बदरीनारायण चौधरी (प्रेमघन) ने अधिकतर विशेष विशेष अवसरों पर––जैसे, दादाभाई नौरोजी के पार्लामेंट के मेंबर होने के अवसर पर, महारानी विक्टोरिया की हीरक-जुबिली के अवसर पर, नागरी के कचहरियों में प्रवेश पाने पर, प्रयाग के सनातन धर्म महासमेलन (सं॰ १९६३) के अवसर पर––आनंद आदि प्रकट करने के लिये कविताएँ लिखी है। भारतेंदु, के सामन नवीन विषयों के लिये ये भी प्रायः रोला छंद ही लेते थे। इनके छंद से यतिभंग प्रायः मिलता है। एक बार जब इस विषय पर मैंने इनसे बातचीत की, तब इन्होंने कहा––"मैं यतिभंग को कोई दोष नहीं मानता; पढ़ने वाला ठीक चाहिए।" देश की राजनीतिक परिस्थिति पर इनकी दृष्टि बराबर रहती थी। देश की दशा सुधारने के लिये जो राजनीतिक या धर्म-संबंधी आंदोलन चलते रहे, उन्हें ये बड़ी उत्कंठा से परखा करते थे। जब कहीं कुछ सफलता दिखाई पड़ती, तब लेखों और कविताओं द्वारा हर्ष प्रकट करते; और जब बुरे लक्षण दिखाई देते, तब क्षोभ और खिन्नता। कांग्रेस के अधिवेशनों में ये प्रायः जाते थे। 'हीरक जुबिली' आदि की कविताओं को खुशामदी कविता न समझना चाहिए। उनमें ये देशदशा का सिंहावलोकन करते थे––और मार्मिकता के साथ।

विलायत में दादाभाई नौरोजी के 'काले' कहे जाने पर इन्होंने 'कारे' शब्द को लेकर बड़ी सरस और क्षोभपूर्ण कविता लिखी थी। कुछ पंक्तियाँ देखिए––

अचरज होत तुमहुँ सम गोरे बाजत कारे।
तामों कारे 'कारे' शब्दहु पर है वारे॥