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नई धारा

करके हम आगे बढ़ते हैं। प्राकृतिक दृश्यों की ओर यह प्यार भरी सूक्ष्म दृष्टि प्राचीन संस्कृत काव्य की एक ऐसी विशेषता है जो फारसी या अरबी के काव्य-क्षेत्र में नहीं पाई जाती। योरप के कवियों में जाकर ही यह मिलती है। अँग२ेजी साहित्य में वर्ड्सवर्थ, शेली और मेरडिथ (Wordsworth, Shelley, Meredith) आदि में उसी ढंग का सूक्ष्म प्रकृत निरीक्षण और मनोरम रूप-विधान पाया जाता है जैसा प्राचीन संस्कृत-साहित्य में। प्राचीन भारत और नवीन युरोपीय दृश्य-विधान में पीछे थोड़ा लक्ष्य-भेद हो गया। भारतीय प्रणाली में कवि के भाव का आलबन प्रकृति ही रही, अतः उसके रूप का प्रत्यक्षीकरण ही काव्य का एक स्वतंत्र लक्ष्य दिखाई पड़ता है। पर योरपीय साहित्य में काव्य निरूपण की बराबर बढ़ती हुई परंपरा के बीच धीरे धीरे यह मत प्रचार पाने लगा कि "प्राकृतिक दृश्यों का प्रत्यक्षीकरण मात्र तो स्थूल व्यवसाय है; इनको लेकर कल्पना की एक नूतन सृष्टि खड़ी करना ही कवि-कर्म है"।

उक्त प्रवृत्ति के अनुसार कुछ पाश्चात्य कवियों ने तो प्रकृति के नाना रूप के बीच व्यंजित होनेवाली भावधारों को बहुत सुंदर उद्घाटन किया, पर बहुतेरे अपनी बेमेल भावनाओं का आरोप करके उन रूपों को अपनी अंतर्वृत्तियों से छोपने लगे। अब इन दोनों प्रणालियों में से किस प्रणाली पर हमारे काव्य में दृश्य-वर्णन का विकास होना चाहिए, यह विचारणीय है। मेरे विचार में प्रथम प्रणाली का अनुसरण ही समीचान है। अनत रूपो से भरा हुआ प्रकृति का विस्तृत क्षेत्र उस 'महामानस' की कल्पनाओं का अनंत प्रसार है। सूक्ष्मदर्शी सहृदयों को उसके भीतर नाना भावों की व्यजना मिलेगी। नाना रूप जिन नाना भावों की सचमुच व्यंजना कर रहे हैं, उन्हें छोड़ अपने परिमित अंतःकोटर की वासनाओं से उन्हें छोपना एक झूठे खेलवाड़ के ही अंतर्गत होगा। यह बात मैं स्वतत्र दृश्य-विधान के सबंध में कह रहा हूँ जिसमें दृश्य ही प्रस्तुत विषय होता है। जहाँ किसी पूर्व प्रतिष्ठित भाव की प्रबलता व्यंजित करने के लिये ही प्रकृति के क्षेत्र से वस्तु-व्यापार लिए जायँगे, वहाँ तो वे उस भाव में रंगे दिखाई ही देगे। पद्माकर की विरहिणी का वह कहना कि "किंसुक गुलान कचनार औ अनारन की डारन पै डोलत अँगारन के पुज हैं।" ठीक ही है। पर बराबर इस रूप में प्रकृति को देखना दृष्टि का