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नई धारा

ही चलन रहा। इंशा ने अपनी 'रानी केतकी की कहानी' में कुछ ठेठ खड़ी बोली के पद्य भी उर्दू छंदों में रखे। उसी समय में प्रसिद्ध कृष्णभक्त नागरीदास हुए। नागरीदास तथा उनके पीछे होनेवाले कुछ कृणभक्तों में इश्क की फारसी पदावली और गज़लबाजी की शौक दिखाई पड़ा। नागरीदास के 'इश्क चमन' का एक दोहा है––

कोइ न पहुँचा वहाँ तक आसिक नाम अनेक।
इश्क-चमन के बीच में आया मजनूँ एक॥

पीछे नजीर अकबराबादी ने (जन्म सवंत् १७९७, मृत्यु १८७७), कृष्ण-लीला-संबंधी बहुत से पद्म हिंदी-खड़ी बोली में लिखे। वे एक मनमौजी सूफी भक्त थे। उनके पद्यों के नमूने देखिए––

यारो सुनो य दधि के लुटैया का बालपन।
औ मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन॥
मोहन-सरूप नृत्य करैया का बालपन।
वन वन में ग्वाल गौवें चरैया का बालपन॥
पैसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन।
क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन॥
परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे।
जोती-सरूप कहिए जिन्हें सो वो आप थे॥


वाँ कृष्ण मदनमोहन ने जब जब ग्वालों से यह बात कही।
औ आपी से झट गेंद डँढा उस कालीदह में फेंक दई॥
यह लीला है उस नंदललन मनमोहन जसुमत-दैया की।
रख ध्यान सुनो दंडवत करो, जय बोलो कृष्ण कन्हैया की॥

लखनऊ के शाह कुंदनलाल और फुंदनलाल 'ललितकिशोरी' और 'ललित-माधुरी' नाम से प्रसिद्ध कृष्ण-भक्त हुए हैं जिनका रचनाकाल संवत् १९१३ और १९३० के बीच समझना चाहिए। उन्होंने और कृष्णभक्तों के समान ब्रजभाषा