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हिंदी-साहित्य का इतिहास

के अनेक पद तो बनाए ही हैं, खड़ी बोली में कई झूलना छंद भी लिखे हैं, जैसे––

जगल में अब रमते हैं, दिल बस्ती से घबराता है।
मानुष-गंध न भाती हैं, सँग मरकट मोर सुहाता है॥
चाक बरेवाँ करके दम दम आहे भरना आता है।
'ललित किशोरी' इश्क रैन दिन ये सब खेल खेलता है॥

इसके उपरांत ही लावनीबाजों का समय आता है। कहते है कि मिरजापुर के तुक़नगिरि गोसाईं ने सधुक्कढ़ी भाषा में ज्ञानोपदेश के लिये लावनी की लय चलाई। लावनी की बोली खड़ी बोली रहती थी। तुकनगिरि के दो शिष्य रिसालगिरि और देवीसिंह प्रसिद्ध लावनीबाज हए, जिनके आगे चलकर दो परस्पर प्रतिद्वंदी अखाड़े हो गए। रिसालगिरि का ढंग 'तुर्रा' कहलाया जिसमें अधिकतर ब्रह्मज्ञान रहता था। देवीसिंह का बाना 'सखी का बाना' और उनका देश 'कलगी' कहलाया जो भक्ति और प्रेम लेकर चलता था। लावनीबाजों में काशीगिरि उपनाम 'बनारसी' का बड़ा नाम हुआ। लाविनियों में पीछे उर्दू के छंद अधिकतर लिए जाने लगे। 'ख्याल' को भी लावली के ही अंतर्गत समझना चाहिए।

इसके अतिरिक्त रीतिकाल के कुछ पिछले कवि भी, जैसा कि हम दिखा आए हैं, इधर-उधर खड़ी बोली के दो-चार कवित्त-सवैए, रच दिया करते थे। इधर लावनीबाज और ख्यालबाज भी अपने ढंग पर कुछ ठेठ हिंदी में गाया करते थे। इस प्रकार खड़ी बोली की तीन छंद-प्रणालियाँ उस समय लोगों के सामने थीं जिस समय भारतेंदुजी के पीछे कविता की भाषा का सवाल लोगों के सामने आया––हिंदी के कवित्त-सवैया की प्रणाली, उर्दू छंदों की प्रणाली और लावनी का ढंग। सुं॰ १९४३ में पं॰ श्रीधर पाठक ने इसी पिछले ढंग पर 'एकांतवासी योगी' खड़ी बोली-पद्य में निकाला। इसकी भाषा अधिकतर बोलचाल की और सरल थी। नमूना देखिए––

आज रात इससे परदेशी चल कीजे विश्राम यहीं।
जो कुछ वस्तु कुटी में मेरे करो ग्रहण, संकोच नहीं॥