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नई धारा

ढांचे पर हुआ था।) इँगलैंड के लिये दूर देश की भाषा थी अतः उसका साहित्य भी वहाँ के निवासियों के अपने चिर संचित संस्कार और भाव्य-व्यंजन पद्धति से दूर पड़ता था।

पर हमारे साहित्य में रीति-काल की जो रूढ़ियाँ हैं वे किसी और देश की नहीं; उनका विकास इसी देश के साहित्य के भीतर संस्कृत में हुआ है। संस्कृत काव्य और उसी के अनुकरण पर रचित प्राकृत-अपभ्रंश काव्य भी हमारा ही पुराना काव्य है, पर पंडितों और विद्वानों द्वारा रूपग्रहण करते रहने और कुछ बँध जाने के कारण जनसाधारण की भावमयी वाग्धारा से कुछ हटा सा लगता है। पर एक ही देश और एक ही जाति के बीच अविर्भूत होने के कारण दोनों में कोई मौलिक पार्थक्य नहीं। अतः हमारे वर्तमान काव्यक्षेत्र में यदि अनुभूति की स्वच्छंदता की धारा प्रकृत पद्धति पर अर्थात् परंपरा से चले आते हुए मौखिक गीतों के मर्मस्थल से शक्ति लेकर चलने पाती तो वह अपनी ही काव्यपरंपरा होती––अधिक सजीव और स्वच्छंद की हुई।

रीति-काल के भीतर हम दिखा चुके हैं कि किस प्रकार रसों और अलंकारों के उदाहरण के रूप में रचना होने से और कुछ छंदों की परिपाटी बँध जाने से हिंदी-कविता जकड़ सी उठी थी। हरिश्चंद्र के सहयोगियों में काव्यधारा को नए नए विषयों की ओर मोड़ने की प्रवृत्ति तो दिखाई पड़ी, पर भाषा ब्रज ही रहने दी गई और पद्य के ढाँचों, अभिव्यंजना के ढंग तथा प्रकृति के स्वरूप- निरीक्षण आदि में स्वच्छंदता के दर्शन न हुए। इस प्रकार की स्वच्छंदता का आभास पहले पहल पं॰ श्रीधर पाठक ने ही दिया। उन्होंने प्रकृति के रूढ़िवद्ध रूपों तक ही न रहकर अपनी आँखों से भी उसके रूपों को देखा। 'गुनवंत हेमंत' में वे गाँवों में उपजनेवाली मूली-मटर ऐसी वस्तुओं को भी प्रेम प्रेम से सामने लाए जो परंपरागत ऋतु-वर्णनों के भीतर नहीं दिखाई पड़ती थीं। इसके लिये उन्हें पं॰ माधवप्रसाद मिश्र की बौछार भी सहनी पड़ी थी। उन्होंने खड़ी बोली पद्य के लिये सुंदर लय और चढ़ाव उतार के कई नए ढाँचे भी निकाले और इस बात का ध्यान रखा कि छंदों का सुंदर लय से पढ़ना एक बात है, राग-रागिनी गाना दूसरी बात। ख्याल या लावनी की लय पर जैसे 'एकांतवासी योगी' लिया गया वैसे ही सुथरे साइँयों के सधुक्कड़ी ढंग पर 'जगत-संचाई-सार'