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हिंदी-साहित्य का इतिहास

जिसमें कहा गया कि 'जगत है सच्चा, तनिक न कच्चा, समझो बच्चा! इसका भेद। 'स्वर्गीय वीणा' में उन्होंने उस परोक्ष दिव्य संगीत की और रहस्यपूर्ण संकेत किया जिसके ताल-सुर पर यह सारा विश्व नाच रहा है। इन सब बातों का विचार करने पर पं॰ श्रीधर पाठक ही सच्चे स्वच्छंदतावाद (Romanticism) के प्रवर्त्तक ठहरते हैं।

खेद है कि सच्ची और स्वाभाविक स्वच्छंदता का यह मार्ग हमारे काव्यक्षेत्र के बीच चल न पाया। बात यह है कि उसी समय पिछले संस्कृत काव्य के संस्कारों के साथ पं॰ महावीरप्रसादजी द्विवेदी हिंदी-साहित्य-क्षेत्र में आए जिनका प्रभाव गद्यसाहित्य और काव्य-निर्माण दोनों पर बहुत ही व्यापक पड़ा। हिंदी में परंपरा से व्यवहृत छदों के स्थान पर संस्कृत के वृत्तों का चलन हुआ, जिसके कारण संस्कृत पदावली का समावेश बढ़ने लगा। भक्तिकाल और रीतिकाल की परिपाटी के स्थान पर पिछले संस्कृत-साहित्य की पद्धति की ओर लोगों का ध्यान बँटा। द्विवेदीजी 'सरस्वती' पत्रिका द्वारा बराबर कविता में बोलचाल की सीधी-सादी भाषा का आग्रह करते रहे जिससे इतिवृत्तात्मक (Matter of fact) पद्यों का खड़ी बोली में ढेर लगने लगा। यह तो हुई द्वितीय उत्थान के भीतर की बात।

आगे चलकर तृतीय उत्थान में उक्त परिस्थिति के कारण जो प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई वह स्वाभाविक स्वच्छंदता की शोर न बढ़ने पाई। बीच में रवींद्र बाबू की 'गीतांजलि' की धूम उठ जाने के कारण नवीनता-प्रदर्शन के इच्छुक नए कवियों में से कुछ लोग तो बंगभाषा की रहस्यात्मक कविताओं की रूप रेखा लाने में लगे, कुछ लोग पाश्चात्य काव्य-पद्धति को 'विश्व-साहित्य' का लक्षण समझ उसके अनुसरण में तत्पर हुए। परिणाम यह हुआ कि अपने यहाँ के रीतिकाल की रूढ़ियों और द्वितीय उत्थान की इतिवृत्तात्मकता से छूटकर बहुत सी हिंदी-कविता विदेश की अनुकृत रूढ़ियों-और वादों में जा फँसी। इने गिने नए कवि ही स्वच्छंदता के मार्मिक और स्वाभाविक पथ पर चले।

"एकांतवासी योगी" के बहुत दिनों पीछे पं॰ श्रीधर पाठक ने खड़ी बोली में और भी रचनाएँ कीं। खड़ी बोली की इनकी दूसरी पुस्तक "श्रांत पथिक"