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हिंदी-साहित्य का इतिहास

सध उत्फुल्ल-अरविंद-निष नील सुवि-
शाल नभवक्ष पर जा रहा था चढ़ा॥

विश्व-संचालक परोक्ष संगीत-ध्वनि की ओर रहस्यपूर्ण संकेत 'स्वर्गीय वीणा' की इन पंक्तियों में देखिए––

कहाँ पै स्वर्गीय कोई वाला सुमजु वीणा बजा रही है।
सुरों के संगीत की-सी कैसी सुरीली गुंजार आ रही है॥
कोई पुरंदर की किंकरी है कि या किसी सुर की सुंदरी है।
वियोग-तप्ता सी भोगमुक्त हृदय के उद्गार गा रही है॥
कभी नई तान प्रेममय है, कभी प्रकोपन, कभी विनय है।
दया है, दाक्षिण्य का उदय है अनेकों बानक बना रही हैं॥
भरे गगन में हैं जितने तारे, हुए है बदमस्त गत पै सारे।
समस्त ब्रह्मांड भर को मानो दो उँगलियों पर नचा रही है॥

यह कह आए हैं कि खड़ी बोली की पहली पुस्तक "एकांतवासी योगी" इन्होंने लावनी या ख्याल के ढंग पर लिखी थी। पीछे खड़ी बोली को हिंदी के प्रचलित छंदों में ले आए। 'श्रांत पथिक' की रचना इन्होंने रोला में की। इसके आगे भी ये बढ़े, और यह दिखा दिया कि सवैए में भी खड़ी बोली कैसी मधुरता के साथ ढल सकती है––

इस भारत में वन पावन के ही तपस्वियों का तप-आश्रम था।
जगतत्व की खोज में लग्न जहाँ ऋषियों ने अभन्न किया श्रम था॥
जब प्राकृत विश्व का विनम्र और था, सात्विक जीवन का क्रम था।
महिमा वनवास की थी तब और, प्रभाव पवित्र अनूपम था॥

पाठकजी कविता के लिये हर एक विषय ले लेते थे। समाज-सुधार के वे बड़े आकांक्षी थे; इससे विधवाओं की वेदना, शिक्षा-प्रचार ऐसे ऐसे विषय भी उनकी कलम के नीचे आया करते थे। विषयों को काव्य का पूरा पूरा स्वरूप देने में चाहे वे सफल न हुए हो, अभिव्यंजना के वाग्वैचित्र्य की ओर उनका ध्यान चाहे न रहा हो, गंभीर नूतन विचार-धारा चाहें उनकी कविताओं के भीतर कम मिलती हो, पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा प्रसाद था कि जो बात