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हिंदी-साहित्य का इतिहास


ग्रहण किया है। उक्त काव्य में श्रीकृष्ण ब्रज में रक्षक-नेता के रूप में अंकित किए गए हैं। खड़ी बोली में इतना बड़ा काव्य, अभी तक नहीं निकला है। बड़ी भारी विशेषता इस काव्य की यह है कि-यह सारा संस्कृत के वर्णवृत्तों में हैं जिसमें अधिक परिमाण में रचना करना कठिन काम है। उपाध्यायजी का संस्कृत पद-विन्यास अनेक उपसर्गों से लदा तथा 'मंजु', 'मंजुल', 'पेशल' आदि से बीच बीच में जटित अर्थात् चुना हुआ होता है। द्विवेदीजी और उनके अनुयायी कवि-वर्ग की रचनाओं से उपाध्याय जी की रचना इस बात में साफ अलग दिखाई पड़ती है। उपाध्यायजी कोमलकांत पदावली को कविता का सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ समझते हैं। यद्यपि द्विवेदीजी अपने अनुयायियों के सहित जब इस संस्कृतवृत्त के मार्गपर बहुत दूर तक चल चुके थे, तब उपाध्यायजी उसपर आए, पर वे बिल्कुल अपने ढंग पर चले। किसी प्रकार की रचना को हद पर-चाहे उस हद तक जाना अधिकतर लोगों को इष्ट न हो-पहुँचाकर दिखाने की प्रवृत्ति के अनुसार उपाध्यायजी ने अपने इस काव्य में कई जगह संस्कृत शब्दों की ऐसी लंबी लड़ी बाँधी है कि हिंदी को 'है', 'था', 'किया', 'दिया' ऐसी दो-एक क्रियाओं के भीतर ही सिमटकर रह जाना पड़ा है। पर सर्वत्र यह बात नहीं है। अधिकतर पदों में बड़े ढंग से हिंदी अपनी चाल पर चल चलती दिखाई पड़ती है।

यह काव्य अधिकतर भाव-व्यंजनात्मक और वर्णनात्मक है। कृष्ण के चले जाने पर ब्रज की दशा का वर्णन बहुत अच्छा है। विरह-वेदना से क्षुब्ध वचनावली प्रेम की अनेक अंतर्दशाओं की व्यंजना करती हुई बहुत दूर तक चली चलती है। जैसा कि इसके नाम से प्रकट है, इसकी कथा-वस्तु एक महाकाव्य क्या अच्छे प्रबंध-काव्य के लिये भी अपर्याप्त है। अतः प्रबंधु-काव्य के सब अवयव इसमें कहाँ आ सकते? किसी के वियोग में कैसी कैसी बातें-मन में उठती हैं और क्या क्या कहकर लोग रोते हैं, इसका जहाँ तक विस्तार हो सका है, किया गया है। परंपरा-पालन के लिये जो दृश्य-वर्णन हैं वे किसी बगीचे में लगे हुए पेड़-पौधो के नाम गिनाने के समान हैं। इसी से शायद करील का नाम छूट गया।