दो प्रकार के नमूने उद्धृत करके हम आगे बढ़ते हैं––
रूपोद्यान प्रफुल्ल-प्राय कलिंका राकेंदू-बिंबानना।
तन्वंगी कलहासिनी सुरसिका क्रीड़ा-कला-पुत्तली॥
शोभा-वारिधि की अमूल्य मणि सी लावण्य-लीलामयी।
श्रीराधा मृदुभाषिणी मृदुदृगी माधुर्य-सन्मूर्ति थी॥
धीरे-धीरे दिन गत हुआ; पद्मिनीनाथ डूबे।
आई दोषा, फिर गत हुई, दूसरा वार आया॥
यों ही बीती विपुल घटिका औ कई वार बीते।
आया न कोई मधुपुर से औ न गोपाल आए॥
इस काव्य के उपरांत उपाध्यायजी का ध्यान फिर बोलचाल की ओर गया। इस बार उनका मुहावरों पर अधिक जोर रहा। बोलचाल की भाषा में उन्होंने अनेक फुटकल विषयों पर कविताएँ रचीं जिनकी प्रत्येक पंक्ति में कोई न कोई मुहावरा अवश्य खपाया गया। ऐसी कविताओं का संग्रह 'चोखे चौपदे' (सं॰ १९८९) में निकला। 'पद्यप्रसून' (१९८२) में भाषा दोनों प्रकार की है––बोलचाल की भी और साहित्यिक भी। मुहावरों के नमूने के लिये "चोखे चौपदे" का एक पद्य दिया जाता है––
क्यों पले पीस कर किसी को तू?
है बहुत पालिसी बुरी तेरी।
हम रहे चाहते, पटाना ही;
पेट तुझसे पटी नहीं मेरी॥
भाषा के दोनों नमूने ऊपर हैं। यही द्विकलात्मक कला उपाध्यायजी की बड़ी विशेषता है। इससे शब्द-भंडार पर इनका विस्तृत अधिकार प्रकट होता है। इनका एक और बड़ा काव्य, 'वैदेही-वनवास'[१], जिसे ये बहुत दिनों से लिखते चले आ रहे थे, अब छप रहा है।
- ↑ यह संवत् १९९७ में प्रकाशित हो गया।
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