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नई धारा

प्रकार जानु नभ-मंडल में समाने।
प्राचीर जासु लखि लोकप हू सकाने॥
जाकी समस्त सुनि संपत्ति की कहानी।
नीचे नबाय सिर देवपुरी लजानी॥

इधर आधुनिक काल में ब्रजभाषा-पद्य के लिये संस्कृत वृत्तों का व्यवहार पहले-पहल स्वर्गीय पं॰ सरयूप्रसाद मिश्र ने रघुवंश महाकाव्य के अपने 'पद्य-बद्ध भाषानुवाद' में किया था जिसका प्रारभिक अंश भारतेंदु की "कवि वचन-सुधा" में प्रकाशित हुआ था। पूरा अनुवाद बहुत दिनों पीछे संवत् १९६८ में पुस्तकाकार छपा। द्विवेदीजी ने आगे चलकर ब्रजभाषा: एकदम छोड़ ही दी और खड़ी बोली में ही काव्य-रचना करने लगे।

मराठी का संस्कार तो था ही, पीछे जान पड़ता है, उनके मन में वर्ड्स्वर्थ (wordsworth) का यह पुराना सिद्धांत भी कुछ जम गया था कि "गद्य और पद्य का पद-विन्यास एक ही प्रकार का होना चाहिए। पर यह प्रसिद्ध बात है कि वर्ड्स्वर्थ की वह सिद्धांत असंगत सिद्ध हुआ था और वह अपनी उत्कृष्ट कविताओं में उसका पालन न कर सका था। द्विवेदीजी ने भी बराबर उक्त सिद्धांत के अनुकूल रचना नहीं की है। अपनी कविताओं के बीच-बीच में सानुप्रास कोमल पदावली का व्यवहार उन्होंने किया है। जैसे––

सुरन्यरूप, रसराशि-रंजिते,
विचित्र-वर्णाभरणे! कहाँ गई?
अलौकिकानंदविधायिनी महा
कवींद्वकाते, कविते! अहो कहाँ?
मांगल्य-मूलमय वारिद-दारि-वृष्टि॥

पर उनका जोर बराबर इस बात पर रहता था कि कविता बोल-चाल की भाषा में होनी चाहिए। बोल-चाल से उनका मतलब ठेठ या हिंदुस्तानी का नहीं रहता था, गद्य की व्यावहारिक भाषा का रहता था। परिणाम यह हुआ कि उनकी भाषा बहुत अधिक गद्यवत् (Prosaic) हो गई। पर जैसा कि गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है––"गिरा-अर्थ जलवीचि सम कहियत भिन्न