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नई धारा

निकले जिनमें बाबू मैथिलीशरण गुप्त, पं॰ रामचरित उपाध्याय और पं॰ लोचनप्रसाद पांडेय मुख्य हैं।

'सरस्वती' का संपादन द्विवेदीजी के हाथ में आने के प्रायः तीन वर्ष पीछे (सं॰ १९६३ से) बाबू मैथिलिशरण गुप्त की खड़ी बोली की कविताएँ उक्त पत्रिका में निकलने लगीं और उनके संपादनकाल तक बराबर निकलती रहीं। संवत् १९६६ में उनका 'रंग में भंग' नामक एक छोटा सा प्रबंध-काव्य प्रकाशित हुआ जिसकी रचना चित्तौड़ और बूँदी के राजघरानों से संबंध रखनेवाली राजपूती आन की एक कथा को लेकर हुई थी। तब से गुप्तजी का ध्यान प्रबंधकाव्यों की ओर बराबर रहा और वे बीच बीच में छोटे या बड़े प्रबंध-काव्य लिखते रहे। गुप्तजी की ओर पहले-पहल हिंदी-प्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचनेवाली उनकी 'भारत-भारती' निकली। इसमें 'मुसद्दस हाली' के ढंग पर भारतीयों की या हिंदुओं की भूत और वर्तमान दशाओं की विषमता दिखाई गई है; भविष्य-निरूपण का प्रयत्न नहीं है। यद्यपि काव्य की विशिष्ट पदावली, रसात्मक चित्रण, वाग्वैचित्र्य इत्यादि का विधान इसमें न था, पर बीच बीच में मार्मिक तथ्यों का समावेश बहुत साफ और सीधी-सादी भाषा में होने से यह स्वदेश की ममता से पूर्ण नवयुवकों को बहुत प्रिय हुई। प्रस्तुत विषय को काव्य का पूर्ण स्वरूप न दे सकने पर भी इसने हिंदी-कविता के लिये खड़ी बोली की उपयुक्तता अच्छी तरह सिद्ध कर दी। इसी के ढंग पर बहुत दिनों पीछे इन्होंने 'हिंदू' लिखा। 'केशों की कथा', 'स्वर्ग-सहोदर' इत्यादि बहुत सी फुटकल रचनाएँ इनकी 'सरस्वती' में निकली हैं, जो 'मंगल घट' में संग्रहीत हैं।

प्रबंध-काव्यों की परंपरा इन्होंने बराबर जारी रखी। अब तक ये नौ-दस छोटे-बड़े प्रबंध-काव्य लिख चुके हैं जिनके नाम हैं––रंग में भंग, जयद्रथ वध, विकट भट, पलासी का युद्ध, गुरुकुल, किसान, पंचवटी, सिद्धराज, साकेत, यशोधरा। अंतिम दो बड़े काव्य हैं। 'विकट भट' में जोधपुर के एक राजपूत सरदार की तीन पीढ़ियों तक चलनेवाली बात की टेक की अद्भुत पराक्रमपूर्ण कथा है। 'गुरुकुल' में सिख गुरुओं के महत्त्व का वर्णन है। छोटे काव्यों में 'जयद्रथ-वध' और 'पंचवटी' का स्मरण अधिकतर लोगों को